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________________ -२०५ ] नयचक्र १११ देहीणं पज्जाया सुद्धा सिद्धाण भणइ सारिच्छा। जो सो 'अणिच्चसुद्धो पज्जयगाही हवे स णओ ॥२०३॥ भणइ अणिच्चासुद्धा चउगइजीवाण पज्जया जो हु। होइ विभावअणिच्चो असुद्धओ पज्जेयस्थिणओ ॥२०४॥ णिप्पण्णमिव पयंपदि भाविपदत्थं ख, जो अणिप्पण्णं । अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भाविणइगमुत्ति णओ ॥२०५॥ आगे कर्मोपाधि निरपेक्ष अनित्य शुद्ध पर्यायाथिकनयका लक्षण कहते हैं जो संसारी जीवोंकी पर्यायको सिद्धोंके समान शुद्ध कहता है वह अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय है ॥२०॥ विशेषार्थ-संसारी जीवको पर्याय तो अशुद्ध ही है क्योंकि उसके साथ कर्मकी उपाधि लगी हुई है। कर्मको उपाधि हटे बिना पर्याय शुद्ध नहीं हो सकती। किन्तु यह नय उस उपाधिकी अपेक्षा न करके संसारी जीवको पर्यायको सिद्धोंके समान शुद्ध कहता है। इसीसे इसका नाम कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध पर्यायाथिकनय है। आगे कर्मोपाधिसापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनयका लक्षण कहते हैं जो चार गतियोंके जीवोंकी अनित्य अशुद्ध पर्यायका कथन करता है वह विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय है ॥२०४॥ विशेषार्थ-जीवकी संसारी पर्याय अशुद्ध पर्याय है, क्योंकि उसके साथ कर्मको उपाधि लगी हुई है। इसीसे उसे विभावपर्याय कहते हैं। स्वभावका उल्टा विभाव होता है। ऐसी पर्याय अनित्य तो होती ही है । तो चारों गतियोंके संसारी जीवोंको विभावरूप अनित्य अशद्ध पर्यायको जाननेवाला या कहनेवाला नय कर्मोपाधिसापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय है। इस प्रकार पर्यायाथिकनयके छह भेद होते हैंअनादिनित्य पर्यायाथिक, सादि नित्य पर्यायार्थिक, अनित्य शुद्ध पर्यायाथिक, अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक, कर्मोपाधिनिरपेक्षअनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक और कर्मोपाधि सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय । नैगमनयके तीन भेदोंमें-से भावि नैगमनयका उदाहरण देते हैं जो अनिष्पन्न भावि पदार्थको निष्पन्नको तरह कहता है उसे भाविनैगमनय कहते हैं। जैसे अप्रस्थको प्रस्थ कहना ॥२०५।। विशेषार्थ जो अभी बना नहीं है उसे अनिष्पन्न कहते हैं। और बन जानेपर निष्पन्न कहते हैं । भाविमें भूतकी तरह व्यवहार करना अर्थात् अनिष्पन्नमें निष्पन्न व्यवहार करना भाविनैगमनय है। जैसे कोई पुरुष कुठार लेकर वनकी ओर जाता है, उससे कोई पूछता है आप किस लिए जाते हैं ? वह उत्तर देता है-प्रस्थ लेने जाता है। पुराने समयमें अनाज मापने के लिए लकड़ीका एक पात्र होता था, उसे प्रस्थ कहते थे। वनसे लकड़ी काटकर उसका प्रस्थ बनवानेका इसका संकल्प है, जो प्रस्थ अभी बना ही नहीं है उसमें प्रस्थका व्यवहार करके वह कहता है कि मैं प्रस्थ लेने जा रहा हूँ। इस प्रकारका वचन व्यवहार भाविनगमनयका विषय है। १. 'कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावोऽनित्यशद्धपर्यायाथिको यथा-सिद्धपर्यायसदृशाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः । -आलाप० । २. 'कर्मोपाविसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायाथिको यथा-संसारिणामुत्पत्तिमरणे स्तः ।' -आलाप० । ३. -त्थं णरो अ-अ. क. ख. मु. जं० । 'भाविनि भूतवत्कथनं यत्र स भाविनगमो यथाअर्हत् सिद्ध एव ।'-आलाप० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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