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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
agart वासी जो हु कारणाभावे । इदमेवमुच्चरंतो भण्णइ सो साइणिच्च णओ ॥ २०० ॥ सत्ता अमुक्खरूवे उप्पादवयं हि गिण्हए जो सोहु सहावाणिच्चो गाही खलु सुद्धपज्जाओ ॥ २०१ ||
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अनित्याशुद्धपर्यायार्थिकनयं लक्षयति
जो गइ एयसमये उत्पादव्वयधुवत्तं संजुतं । सो सम्भावाणिच्चो असुद्ध पेंज्जयत्थिओ ओ ॥ २०२ ॥
विशेषार्थ - - चन्द्रमा, सूर्य, लोक आदि अनादि नित्य पर्याय हैं । इन्हें किसीने बनाया नहीं है, अनादिकाल से ऐसी ही चली आ रही हैं और सदा चली जायेंगी । ऐसी अनादि नित्य पर्यायोंको ग्रहण करने वाला नय अनादिनित्य पर्यायार्थिकनय है ।
[ गा० २००
आगे सादि नित्य पर्यायार्थिकनयका स्वरूप कहते हैं
जो पर्याय कर्मों के क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण सादि है और विनाशका कारण न होनेसे अविनाशी है, ऐसी सादि नित्य पर्यायको ग्रहण करनेवाला सादि नित्य पर्यायार्थिकनय है ||२००||
विशेषार्थ — ऐसी भी पर्याय होती है जो सादि किन्तु नित्य होती है, जैसे सिद्ध पर्याय । जीवकी सिद्ध पर्याय कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होती है, अतः सादि है और फिर कभी नष्ट नहीं होती; क्योंकि मुक्त जीव अन्तरंग और बहिरंग कर्मकलंक से मुक्त होता है । उसमें पुनः विकार उत्पन्न होनेके कोई कारण नहीं है । इसलिए सादि होते हुए भी वह नित्य है । ऐसी सादि नित्य पर्यायको ग्रहण करनेवाला पर्यायार्थिक नय है ।
नय सादि नित्य
आगे अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनयका स्वरूप कहते हैं
जो सत्ताको गौण करके उत्पाद - व्ययको ग्रहण करता है उसे अनित्य स्वभावको ग्रहण करनेवाला शुद्ध पर्यायार्थिकनय कहते हैं ॥ २०१ ॥
विशेषार्थ - - सत्का लक्षण उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य है । प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव भी रहती है। इनमेंसे जो नय ध्रौव्यको गौण करके प्रति समय होनेवाले उत्पाद-व्ययरूप पर्यायको ही ग्रहण करता है वह अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय है । पर्यायार्थिक नयका शुद्ध विषय अर्थ पर्याय ही है | अतः पर्यायार्थिक नयके अन्य भेद अशुद्धताको लेकर ही बनते हैं ।
आगे अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नयका स्वरूप कहते हैं
जो एक समय में उत्पाद - व्यय और ध्रौव्यसे युक्त पर्यायको ग्रहण करता है वह स्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है ॥ २०२॥
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विशेषार्थ- - यह नय पर्यायको उत्पाद व्यय के साथ श्रीव्यरूप भी देखता है, इसीलिए इसे अशुद्ध पर्यायार्थिकनका नाम दिया गया है ।
१. सादिनित्य पर्यायार्थिको यथा-सिद्धपर्यायो नित्यः । — आलापप० । २. 'सत्ता गौणत्वेनोत्पादव्ययग्राहकस्वभावोऽनित्यशुद्धपर्यायार्थिको यथा समयं समयं प्रति पर्याया विनाशिनः ।' -आलापप० । ३. - धुवत्तएहिं संजुत्तं आ । ४. अशुद्धओ पज्जयत्थिण ओ अ० क० ज० मु० । 'सत्ता सापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको यथा - एकस्मिन् समये त्रयात्मकः पर्यायः ।-आलापप० ।
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