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नयचक्र
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गेण्हइ दव्वसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्त । सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण ॥१९८॥ 'अक्किट्टिमा अणिहणा ससिसूराईय पज्जया गाही। जो सो अणाइणिच्चो जिणभणिओ पज्जयत्थिणओ ॥१९९॥
उसका स्वक्षेत्र है, प्रत्येक द्रव्यमें रहने वाले गुण उसका स्वकाल है, क्योंकि कालका मतलब है- समय प्रवाह, गुण भी प्रवाही है, सदा द्रव्य के साथ अनुस्यूत रहते हए सब कालमें प्रवाहित होते रहते हैं। और गुणोंके जो अंश 'अविभागप्रतिच्छेद' हैं वह स्वभाव है। इसी स्वद्रव्यादि चतुष्टयसे वस्तु सत् है।इसके सिवाय जो अन्यद्रव्योंके स्वचतुष्टय हैं वह परद्रव्यादि चतुष्टय हैं, उनकी अपेक्षा वस्तु असत् है। ऐसा होनेसे ही द्रव्यकी द्रव्यता स्थिर है। अन्यथा सब द्रव्य एकमेक हो जायें। इनमें से स्वचतुष्टयमें वर्तमान द्रव्यको ग्रहण करनेवाला स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्याथिकनय है और परद्रव्यादिमें असत् द्रव्यको ग्रहण करनेवाला परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्याथिकनय है।
आगे परमभावग्राही द्रव्याथिकनयका स्वरूप कहते हैं
जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित स्वभावसे रहित परमस्वभावको ग्रहण करता है वह परम भाव ग्राही द्रव्याथिकनय है। उसे मोक्षके अभिलाषीको जानना चाहिए ॥१९८॥
विशेषार्थ-पहले लिख आये हैं कि जीवके पांच भाव होते हैं-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणारिक । इनमेसे औदयिक भाव बन्धका कारण है, औपशमिक भाव और क्षायिक भाव मोक्षका कारण है । तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनोंका कारण नहीं है। उसे ही परम भाव कहते हैं । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्षका कारण नहीं है, तब मोक्ष के अभिलाषीको उसके जाननेकी क्या आवश्यकता है। इसका समाधान यह है कि पांचों भावोंमें शुद्ध पारिणामिक भाव तो द्रव्यरूप है और शेष चार भाव पर्याय रूप हैं। वैसे पारिणामिक भाव तीन हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। उनमेंसे शक्तिरूप शद्ध जीवत्व शुद्धद्रव्याथिकनयकी अपेक्षा निरावरण है, उसे ही शुद्धपारिणामिकभाव कहते हैं । जब काललब्धिवश भव्यत्वशक्तिको व्यक्ति होती है तब यह जीव सहजशुद्ध पारिणामिकभावरूप निज परमात्मद्रव्यके श्रद्धान ज्ञान और आचरण रूप पर्यायसे परिणमन करता है। उस परिणमनको आगमको भाषामें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव रूपसे कहते हैं। और अध्यात्ममें उसे शुद्धात्माके अभिमुख परिणाम या शुद्धोपयोग रूप पर्याय कहते हैं। वह पर्यायशुद्ध पारिणामिक भाव रूप शुद्ध आत्मद्रव्यसे कथंचित् भिन्न है, क्योंकि वह भावना रूप है । किन्तु शुद्धपारिणामिक भावनारूप नहीं है। यदि इसे शुद्धपारिणामिकसे सर्वथा अभिन्न माना जावे तो इस मोक्षके कारणभूत भावनारूप पर्यायका मोक्षमें विनाश होने पर शुद्ध पारिणामिकका भी विनाश प्राप्त होता है। किन्तु शुद्धपारिणामिक तो नष्ट होता नहीं। अतः यह स्थिर होता है कि शीपारिणामिक भावके विषयमें भावनारूप जो औपशमिक आदि तीन भाव हैं वे तो मोक्षके कारण है; शुद्धपारिणामिक नहीं हैं। इसीसे आगममें उसे निष्क्रिय कहा है अर्थात् बन्धके कारणभूत जो रागादिपरिणतिरूप क्रिया है.न तो वह उस क्रिया रूप है और मोक्षके कारणभूत जो शुद्धभावना परिणति रूप क्रिया है,न वह उस क्रिया रूप ही है । अतः शुद्धपारिणामिक भाव ध्येयरूप है। इसीसे मोक्षके अभिलाषीको उसे अवश्य जानना चाहिए। उसीके ग्राहकनयको परमभावनाही द्रव्याथिकनय कहते है। (देखो, समयसार,गाथा ३२० की जयसेन टीका)
आगे पर्यायाथिकनयके छह भेदोंका कथन करते हुए पहले अनादि नित्यपर्यायार्थिक नयका लक्षण कहते हैं
जो अकृत्रिम और अनिधन अर्थात् अनादि अनन्त चन्द्रमा,सूर्य आदि पर्यायोंको ग्रहण करता है उसे जिन भगवान्ने अनादिनित्य पर्यायाथिकनय कहा है ।।१९९॥ १. अनादिनित्यपर्यायाथिको यथा पुदगलपर्यायो नित्यो मेर्वादिः ।-आलाप० ।
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