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नयचक्र उक्तं च गाथात्रयेण
सवियप्पं णिव्वियप्पं पमाणरूवं जिणेहि णिद्दिटुं। तहविह णया वि भणिया सवियप्पा णिवियप्पा वि ॥१०॥
-सन्मति सूत्र ११३५ ।। कालत्तयसंजुत्तं दव्वं गिण्हेइ केवलं णाणं । तत्थ णयेण वि गिण्हुइ भूदोऽभूदो पवट्टमाणो वि ॥२॥ मणसहियं सवियप्पं णाणचउक्कं जिणेहि णिद्दिष्टुं । तव्विवरीयं इयरं आगमचक्खूहि णायव्वं ॥३॥
इति प्रमाणाधिकारः।
एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि। इन धर्मोको लेकर ही नाना दार्शनिकपन्थ खड़े हुए हैं। कोई वस्तुको सत्स्वरूप ही मानता है, कोई असत्स्वरूप ही मानता है, कोई एक रूप ही मानता है, कोई अनेक रूप ही मानता है। कोई नित्य ही मानता है, कोई अनित्य ही मानता है। इस प्रकार एक-एक धर्मको माननेवाले एकान्तवादोंका समन्वय करनेके लिए नययोजनाका उपक्रम भगवान महावीरने किया था। उन्होंने प्रत्येक एकान्तको नयका विषय बतलाकर और नयोंकी सापेक्षता स्वीकार करके अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की थी। एकान्तोंके समूहका नाम ही अनेकान्त है। यदि एकान्त न हों तो उनके समूहरूप अनेकान्त भी नहीं बन सकता। अतः एकान्तोंकी निरपेक्षता विसंवादकी जड़ है और एकान्तोंकी सापेक्षता संवादको जड़ है। अतः पर्यायाथिक नयको अपेक्षा पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते और नाशको प्राप्त होते हैं. किन्तु द्रव्यदृष्टिसे न तो कभी पदार्थोंका नाश होता है और न उत्पाद होता है, वे ध्रव-नित्य है। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों मिलकर ही द्रव्यके लक्षण है। केवल द्रव्याथिक या केवल पर्यायार्थिक नयका जो विषय है वह द्रव्यका लक्षण नहीं है, क्योंकि वस्तु न केवल उत्पाद, व्ययरूप ही जैसा बौद्ध मानते हैं और न केवल ध्रौव्यरूप ही है, जैसा सांख्य मानते हैं। अतः अलग-अलग दोनों नय मिथ्या हैं। इस तरह वस्तुके एक-एक अंशको ही पूर्ण सत्य माननेवाले एकान्तवादी दर्शनोंका समन्वय करनेके लिए नययोजना करना आवश्यक है। कहा भी है कि जितने वचनमार्ग है-ज्ञाताओंके अभिप्राय हैं उतने ही नयवाद है और जितने नयवाद हैं उतने ही मत हैं। इन मतोंका समन्वय सापेक्ष नययोजनासे ही संभव है। यदि प्रत्येक अभिप्रायको दूसरेसे जोड़ दिया जाये तो विसंवाद समाप्त हो जाता है। झगड़ा 'हो'का है। ऐसा ही है - यह कहना मिथ्या है। ऐसा भी है-यह कहना सम्यक् है।
आगे ग्रन्थकार अपने कथनके समर्थन में तीन गाथाएँ अन्य ग्रन्थोंसे उद्धृत करते हैं
जिनेन्द्रदेवने प्रमाणका स्वरूप सविकल्प और निर्विकल्प कहा है। उसी तरह नयों को भी सविकल्पक भी कहा है और निर्विकल्पक भी कहा है। केवलज्ञान त्रिकालवर्ती द्रव्यको ग्रहण करता है। तथा नय भी भूत-भविष्य और वर्तमानको ग्रहण करता है। जिनेन्द्रदेवने मनसहित चार ज्ञानोंको सविकल्पक कहा है और मनरहितको निर्विकल्प कहा है, आगमरूपी नेत्रोंसे उसे जानना चाहिए ॥१-३॥
विशेषार्थ-उक्त तीनों उद्धरणोंमें से अन्तके दो उद्धरण किस ग्रन्यके हैं,यह नहीं ज्ञात हो सका। इसीसे उनका पूर्वापर सम्बन्ध भी ज्ञात नहीं हो सका। प्रमाणको भी सविकल्प और निर्विकल्प कहा है और नयोंको भी सविकल्प निर्विकल्प कहा है। तीसरी गाथामें मनसहितको सविकल्प कहा है और मनरहितको निर्विकल्प कहा है । तथा चार ज्ञानोंको सविकल्प कहा है । ये चार ज्ञान मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय होने चाहिए। इनमें से मति और श्रुतमें तो मनका व्यापार होता ही है। अवधि, मनःपर्यय भी प्रारम्भमें
१. भूदो खन वट्टभाणो वि अ० क. । भूदो पवट्टमाणो वि खः ।
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