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________________ १०० द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० १७३ नयस्वरूपं प्रयोजनं तस्यैव समर्थनार्थ दृष्टान्तमाह जं णाणीण वियप्पं 'सुवासयं वत्थुअंससंगहणं । तं इह गयं पउत्तं णाणी पुण तेण जाणेण ॥१७३॥ जह्माणएण विणा होइ ण णरस्स सियवायपडिवत्ती। तह्मा सो बोहव्वो एयंतं हतुकामेण ॥१७४॥ मनोपूर्वक ही अपना व्यापार करते हैं। पंचाध्यायीकारने इन दोनोंको देशप्रत्यक्ष कहने में यही हेतु दिया है कि इनमें मनका व्यापार भी रहता है, इसीसे ये सकल प्रत्यक्ष न होकर विकल प्रत्यक्ष कहे जाते हैं। किन्तु केवल ज्ञानमें मनका व्यापार किंचित् भी नहीं होता, केवलीके भावमन ही नहीं होता, अतः केवलज्ञान निर्विकल्प होता है। किन्तु प्रमाण की तरह जो नयको भी सविकल्प और निर्विकल्प कहा है वह किस दष्टिसे कहा है,यह चिन्त्य है। नयको तो विकल्पात्मक ही कहा है। उसमें मनका व्यापार बराबर रहता है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि केवलज्ञानकी तरह यद्यपि नय भी त्रिकालवर्ती वस्तुओंने अंशको जानते है किन्तु वे केवलज्ञानके भेद नहीं है : क्योंकि केवल ज्ञान स्पष्ट होता है और नय अस्पष्टग्राही हैं। इसी तरह मति, अवधि और मनःपर्ययके विषयमें भी भयकी प्रवृत्ति नहीं होती। नयोंका श्रुत स्वार्थ भी होता है और परार्थ भी होता है । ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थ है और वचनात्मक श्रुत परार्थ है। उसोके भेद नय भी स्वार्थ और परार्थ होते हैं । प्रमाणाधिकार समाप्त हुआ। नयका स्वरूप, उसका प्रयोजन तथा उसीके समर्थन के लिए दृष्टान्त कहते हैं श्रुतज्ञानके आश्रयको लिये हुए ज्ञानीका जो विकल्प वस्तुके अंशको ग्रहण करता है उसे नय कहते हैं । उस ज्ञानसे जो युक्त होता है वह ज्ञानी है ॥१७३।। विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा ग्रन्थकारने नयका स्वरूप बतलाया है। नय श्रुतज्ञानका भेद है । इसलिए श्रुतके आधारसे ही नयकी प्रवृत्ति होती है। श्रुत प्रमाण होनेसे सकलग्राही होता है, उसके एक अंशको ग्रहण करनेवाला नय है ,इसीसे नय विकल्प रूप है । नयके बिना मनुष्यको स्याद्वादका बोध नहीं हो सकता। इसलिए जो एकान्तका विरोध करना चाहता है उसे नयको जानना चाहिए ॥१७४॥ विशेषार्थ-अकलंकदेवने लघीयस्त्रय (का० ६२) में कहा है कि श्रुतके दो काम है-उनमें से एकका नाम स्याद्वाद है और दूसरेका नाम नय है। सम्पूर्ण वस्तुके कथनको स्याद्वाद कहते हैं और वस्तुके एक देशके कथनको नय कहते हैं । और समन्तभद्र ( आप्तमी० १०६ ) ने स्याद्वादके द्वारा गृहीत अनेकान्तात्मक पदार्थके धर्मों का अलग-अलग कथन करनेवाला नय है,ऐसा कहा है। अतः प्रमाणके द्वारा अनेकान्तका बोध होता है और नयके द्वारा एकान्तका बोध होता है। किन्तु नय तभी सुनय है जब वह सापेक्ष हो। यदि वह अन्य नयोंके द्वारा गृहीत अन्य धर्मोका निराकरण करता है तो वह दुर्नय हो जाता है। अतः सापेक्ष नयोंके द्वारा गृहीत एकान्तोंके समूहका नाम ही अनेकान्त है और अनेकान्तका ग्राहक या प्रतिपादक स्याद्वाद है। अतः स्याद्वादको समझनेके लिए नयको समझना आवश्यक है। और नयके द्वारा ही एकान्तका निरास सम्भव है। क्योंकि यद्यपि नय एकान्तका ग्राहक है,किन्तु वह एकान्त भी तभी सम्यक एकान्त कहा जाता है जब वह अन्य एकान्तोंका निराकरण नहीं करता। अतः अन्य सापेक्ष एकान्त ही सम्यक् एकान्त है। तो जैनधर्म सम्यक् एकान्तका विरोधी नहीं है, किन्तु मिथ्या एकान्तका विरोधी है। इस प्रकारके एकान्तोंके समन्वयके लिये नयका ज्ञान आवश्यक है। नयका ज्ञाता यह जानता है कि वस्तुको जानने के बाद ज्ञाता अपने ३. णाणेण अ० क०। १. सुयभेयं अ० क० ख० मु०। २. तेहि णाणेहि अ. क० ख० मु० ज०। ४. णायन्वो मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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