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________________ ९८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक 'वत्थू पमाणविसयं णयविसयं हवइ वत्थुएकंसं । जं दोहि णिण्णयटुं तं णिक्खेवे हवइ विसयं ॥ १७१ ॥ नययोजनिकाक्रममाह - सहावभरियं वत्थु गहिऊण तं पमाणेण । तणास पच्छा णयजुंजणं कुणह ॥ १७२ ॥ है । इसीसे सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित वस्तुस्वरूप ही यथार्थ है । उसे सम्यक् रीति से जानना चाहिए । ज्ञान ही ऐसा एक गुण है, जिसके द्वारा हम अपने को और दूसरोंको जान सकते हैं, इसलिए जीवन में सम्यग्ज्ञानकी उपासना अवश्य करना चाहिए । [ गा० १७१ आगे प्रमाण, नय और निक्षेप में अन्तर बतलाते हैं वस्तु प्रमाणका विषय है और वस्तुका एक अंश नयका विषय है । और जो अर्थ प्रमाण और नयसे निर्णीत होता है वह निक्षेपका विषय है ॥ १७१ ॥ विशेषार्थ - -प्रमाण पूर्ण वस्तुको ग्रहण करता है । अर्थात् धर्मभेदसे वस्तुको ग्रहण न करके सभी धर्मोके समुच्चयरूप वस्तुको जानता है । और प्रमाणके द्वारा गृहीत पदार्थ के एकदेश में वस्तुका निश्चय करानेवाले ज्ञानको नय कहते हैं । नय धर्मभेदसे वस्तुको ग्रहण करता है अर्थात् वह सभी धर्मोके समुच्चय वस्तुको ग्रहण न करके केवल किसी एक धर्मके द्वारा ही वस्तुको ग्रहण करता है । जैसे द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु प्रमाणका विषय है और केवल द्रव्यरूप या पर्यायरूप वस्त्वंश नयका विषय है । चूँकि नय एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण करता है, किन्तु वस्तु उस एक धर्मरूप ही नहीं है, उसमें तो अनेक धर्म हैं । इसलिए सभी नय सापेक्ष अवस्था में ही सम्यक् होते हैं । जो किसी एक धर्मरूप ही वस्तुको स्वीकार करके अन्य धर्मोका निषेध करता है वह नय मिथ्या है। आशय यह है कि नय जाननेवाले के अभिप्रायको व्यक्त करता है, इसीसे ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहा है । नयमें ज्ञाताके अभिप्रायके अनुसार वस्तुकी प्रतीति होती है । किन्तु प्रमाणसे यथार्थ पूर्ण वस्तुकी प्रतीति होती है । इसीसे नय प्रमाणका ही भेद होते हुए भी प्रमाणसे भिन्न है । जैसे समुद्रका अंश न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही है । वैसे हो नय न तो प्रमाण ही है और न अप्रमाण ही है । इस प्रकार नय और प्रमाणमें भेद है । नय और प्रमाणसे गृहीत वस्तुमें निक्षेप योजना होती । निक्षेपयोजनाका उद्देश्य है - अप्रकृतका निराकरण और प्रकृतका निरूपण । अर्थात् किसी शब्द या वाक्यका अर्थ करते समय उस शब्दका लोकमें जितने अर्थोंमें व्यवहार होता है उनमें से कौन अर्थ वक्ताको विवक्षित है, यह निश्चय करनेके लिए निक्षेप योजना की गयी है । जैसे 'जिन' शब्दका व्यवहार लोकमें चार अर्थों में होता है । जो नाममात्र से जिन है वह नाम जिन है । जिस मूर्ति वगैरह में जिनकी स्थापना की गयी है वह स्थापनाजिन है । जो व्यक्ति आगे कर्ममलको काटकर जिन होनेवाला है वह द्रव्य जिन है । और जो कर्मोंपर विजयप्राप्त करके जिन बना है वह भावजिन है । इसी तरह सब शब्दोंके चार निक्षेप होते हैं । इनके द्वारा जहाँ जो अर्थ विवक्षित होता है वह ले लिया जाता है, इससे अर्थ में अनर्थ नहीं हो पाता । नययोजनाका क्रम कहते हैं अनेक स्वभावों से परिपूर्ण वस्तुको प्रमाणके द्वारा ग्रहण करके तत्पश्चात् एकान्तवादका नाश करने के लिए नयोंकी योजना करनी चाहिए ॥ १७२ ॥ विशेषार्थ - - ऊपर कह आये हैं कि प्रमाणसे गृहीत वस्तुके एक अंशका ग्राही नय है । वस्तु तो अनेक धर्मात्मक है । उन अनेक धर्मोंमें ऐसे भी धर्म हैं जो परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, जैसे सत्त्व असत्त्व, १. प्रमाणं सकलादेशि नयादभ्यर्हितं मतम् । स्वार्थैकदेशनिर्णीति लक्षणो हि नयः स्मृतः ॥४ ॥ - त० श्लोकवार्तिक १- ६-४ । २. 'नाना स्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः । तच्च सापेक्षसिद्धयर्थं स्यान्नयमिश्रितं कुरु ||' - आलाप प० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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