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________________ - १७० ] नयचक्र ។ "मसु पक्खणाणं ओहीमणं होइ वियलपच्चक्खं । केवलणाणं च तहा अणोवमं सयलपच्चक्वं ॥ १७०॥ वस्तु यथार्थ स्वरूपको ग्रहण कर लिया जाता है, तभी उसमें जाननेवालेकी प्रवृत्ति होती है और तभी उससे कार्यकी सिद्धि होती है। जैसे प्यासा आदमी जब जान लेता है कि वहाँ पानी है, तभी वह पानी के पास जाता है और अपनी प्यास बुझाता है। इसी तरह धर्मके सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। यह संसार क्या है, क्यों हैं, मेरा स्वरूप क्या है, मैं चेतन हूँ तो क्यों हूँ, जड़से मेरा स्वरूप क्यों भिन्न है ? जड़के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है, सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरुका क्या स्वरूप है, झूठे देव, झूठे शास्त्र, झूठे गुरु कैसे हो हैं, ये सब बातें जाने बिना धर्मके स्वरूपको नहीं जाना जा सकता और बिना जाने प्रवृत्ति करने में तो खतरा ही खतरा है । आजकल लोग धर्म करते भी हैं तो बिना जाने - बूझे करते हैं । इसीसे उन्हें धर्म करके भी जो आनन्द आना चाहिए वह नहीं आता । शास्त्रज्ञान के बिना शास्त्रोंकी बातोंको कैसे जाना जा सकता है?इसीसे ‘छहढाला’में ज्ञानकी प्रशंसा करते हुए कहा है- 'ज्ञान समान न आन जगतमें सुखको कारन । इह परमामृत जन्मजरामृति रोगनिवारन ।' इस संसार में सम्यग्ज्ञान के समान सुखदायक कोई नहीं है । यह ज्ञान ही जन्म, जरा और मृत्युरूपी रोगोंको नाश करनेके लिए अमृत के समान है । अतः सम्यग्ज्ञानकी उपासना करना चाहिए। उस सम्यग्ज्ञान रूप प्रमाणके दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । जो ज्ञान इन्द्रिय, प्रकाश, उपदेश आदि बाह्य निमित्तोंसे होता है उसे परोध ज्ञान कहते हैं और जो ज्ञान परकी सहायता के बिना मात्र आत्मासे ही होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । ९७ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञान अनुपम सकल प्रत्यक्ष है || १७० || विशेषार्थ- -मन और इन्द्रियोंकी सहायतासे जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थ में मनकी सहायतासे जो विशेषज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । ये दोनों ज्ञान इन्द्रियोंकी सहायता से उत्पन्न होते हैं इसलिए इन्हें परोक्ष कहते हैं; क्योंकि इन्द्रियाँ, प्रकाश, उपदेश ये सब पर हैं और परकी सहायता से जो ज्ञान होता है वह परोक्ष है । प्रत्यक्षके दो भेद हैं- विकल प्रत्यक्ष या एक देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं । और एक मात्र केवल ज्ञान सकल या पूर्ण प्रत्यक्ष है । इन्द्रियादिकी सहायता के बिना केवल आत्मासे जो रूपी पदार्थोंका एक देश प्रत्यक्षज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं । और दूसरेके मनमें स्थित अर्थका जो एकदेश प्रत्यक्ष ज्ञान होता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । ये दोनों ज्ञान मूर्त पदार्थको ही प्रत्यक्ष जानते हैं, उसकी सब पर्यायों को नहीं जानते, कुछ ही पर्यायोंको जानते हैं । किन्तु केवलज्ञान समस्त ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयसे प्रकट होता है, अतः वह सब द्रव्योंकी सब पर्यायोंको एक साथ जानता है । इसीसे उसे अनुपम कहा है। उसके समान अन्य कोई ज्ञान नहीं है। असल में ज्ञान जीवका स्वाभाविक गुण है । चूँकि हमारा ज्ञान परकी सहायता से होता है, अतः उसे परका गुण समझ लिया जाता है, किन्तु वह तो आत्मिकगुण है, कमसे आच्छादित होने के कारण उसे परकी सहायताकी आवश्यकता पड़ती है । कर्मोका आवरण हट जाने पर वह सूर्य की तरह सर्व प्रकाशक हो जाता है। विश्व में जो कुछ भी सत् है वह उसका ज्ञेय है, उसे वह जानता ही है । जो उसका ज्ञेय नहीं है वह वस्तु ही नहीं है । इसीसे केवलज्ञानी, अर्हन्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होते हैं । और उनके वचनोंको प्रमाण माना जाता है । वे अन्यथा नहीं कहते हैं । राग, द्वेष और मोहवश मनुष्य झूठ बोलता हैं जिसमें राग-द्वेष और मोह न होने के साथ पूर्णज्ञान भी होता है, उसके असत्य बोलनेका कोई कारण नहीं Jain Education International १. मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । आये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् । - तस्वार्थसूत्र १ भ०, सू० ९, १०, ११, १२ । 'प्रत्यक्षमिदानीं वक्तव्यं तत् द्वेधा-देशप्रत्यक्षं सकलप्रत्यक्षं च । देशप्रत्यक्षमवधिमन:पर्ययज्ञाने । सर्वप्रत्यक्षं केवलम् । - सर्वार्थसिद्धिः । १३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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