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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० १६८प्रमाणस्वरूपं प्रयोजनं भेदं विषयं चाह
कजं सयलसमत्थं जीवो साहेइ वत्थुगहणेण । वत्थू पमाणसिद्धं तह्मा तं जाण णियमेण ॥१६८॥ गेण्हइ वत्थुसहावं अविरुद्धं सम्मरूव जं गाणं।
भणियं खु तं पमाणं पच्चक्खपरोक्खभेएहि ॥१६९॥ प्रमाण कहते हैं,उपायको निक्षेप कहते हैं और ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं । इस प्रकार युक्तिसे अर्थात् प्रमाण,नय और निक्षेपके द्वारा पदार्थका निर्णय करना चाहिए। तो एक त्रिवर्ग तो प्रमाण, नय, निक्षेप है और दूसरा त्रिवर्ग युक्ति,आगम और अध्यात्म है। ऊपर ग्रन्थकारने कहा है कि त्रिवर्गको उ का साधन नहीं कर सकता । सो प्रमाण, नय,निक्षेपको जाने बिना तर्क या युक्ति, आगम और अध्यात्मकी साधना करना संभव नहीं है। तर्क या युक्ति तो प्रमाणमूलक होती है, अतः प्रमाणको जाने बिना युक्ति या तर्कका प्रयोग अथवा उसे समझना संभव नहीं है। ग्रन्थकारने प्रवचन या आगम और अध्यात्मका अन्तर भी स्पष्ट कर दिया है। आजकल इस अन्तरको न जाननेसे भी बहुत विसंवाद फैला हुआ है। आगम या प्रवचनमें तो छहों द्रव्योंकी चर्चा रहती है। वहां शुद्ध द्रव्य या अशुद्ध द्रव्यको लेकर एककी सत्य और दूसरेको मिथ्या बतलानेकी दृष्टि नहीं है। किन्तु अध्यात्मका मुख्य प्रयोजनीय विषय शुद्ध आत्मा है। वही उसकी दृष्टि में सत्य और उपादेय है। जब आगम प्रकारान्तरसे उसी बातको कहता है, तब अध्यात्म सीधी तरहसे उस बातको कहता है। उदाहरणके लिए'तत्त्वार्थसूत्रमें भी सात तत्त्वों या नौ पदार्थोंका कथन है और 'समयसारमें भी उन्हींका कथन है। किन्तु सूत्रकारका उद्देश उनका स्वरूप मात्र बोध कराना है, परन्तु 'समयसारके' कर्ताका उद्देश केन्द्रमें शुद्ध आत्माको रखकर उसकी दृष्टिसे सात तत्त्वों या नौ पदार्थोंकी प्रक्रियाको बतलाना है । तत्त्वार्थ सूत्रका उद्देश तत्त्वार्थका अधिगम-बोध कराना है और समयसारका उद्देश भेदविज्ञान कराना है कि जीव और अजीव ये दोनों दो स्वतंत्र भिन्न स्वभाववाले पदार्थ हैं और जीव और पुद्गल के संयोगसे ही शेष आस्रव आदिकी रचना हुई है। इस लिए उसमें से उपादेय केवल एक शुद्ध जीव ही है । वह शुद्ध जीव निश्चयनयका विषय है। निश्चयनय शुद्ध द्रव्यका निरूपण करता है और व्यवहार नय अशुद्धद्रव्यका निरूपण करता है । जैसे रागपरिणाम ही आत्माका कर्म है। वही पुण्य-पाप रूप है, आत्मा राग परिणामका ही कर्ता है,उसीका ग्रहण करनेवाला है और उसीका त्याग करनेवाला है-यह निश्चयनयकी दष्टि है। पुदगल परिणाम आत्माका कर्म है, वही पुण्य-पाप रूप है, आत्मा पुदगल परिणामका कर्ता है उसीको ग्रहण करता है और छोड़ता है-यह व्यवहार नयकी दृष्टि है। ये दोनों ही नय सत् हैं, क्योंकि शुद्धता और अशुद्धता दोनों रूपसे द्रव्यकी प्रतीति होती है, किन्तु अध्यात्ममें साधकतम होनेसे निश्चयनयको ग्रहण किया गया है । क्योंकि साध्यके शुद्ध होनेसे द्रव्यकी शुद्धताका द्योतक निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्धताका द्योतक व्यवहारनय नहीं, अध्यात्मकी यह दृष्टि है। आगमकी दृष्टि केवल वस्तुस्वरूप बोधक है, प्रापक नहीं है । अतः प्रमाणनय-निक्षेप रूप तर्कके द्वारा आगममें प्रतिपादित वस्तुतत्त्वको जानकर अध्यात्मके द्वारा उसमें से शुद्धआत्माको प्राप्त करना चाहिए ।
आगे प्रमाणका स्वरूप,भेद और प्रयोजन कहते हैं
जीव वस्तुको ग्रहण करके सकल समर्थ कार्यको सिद्ध करता है। और वस्तुकी सिद्धि प्रमाणके द्वारा होती है इसलिए उस प्रमाणको नियमसे अवश्य जानना चाहिए ॥१६८॥ जो ज्ञान वस्तुके यथार्थ स्वरूपको सम्यकपसे जानता है उसे प्रमाण कहते हैं। उसके दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष ॥१६९॥
विशेषार्थ-वस्तुके सच्चे ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । सीपमें चाँदीका भ्रम होना या यह सोप है या चाँदी, इस प्रकारका संशय रूप ज्ञान प्रमाण नहीं है। वही ज्ञान प्रमाण होता है जो सीपको सीप रूपसे और चाँदीको चाँदी रूपसे जानता है। अतः वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी प्रतीति प्रमाणके द्वारा ही होती है। जब
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