SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१६७ ] नयचक्र णच्चा दव्वसहावं जो 'सद्धाणगुणमंडिओ गाणी । चारित्तरयणपुण्णो पच्छा सो णिवुदि लहई ॥१६४॥ इति पदार्थाधिकारः । तीर्थस्वामिनं नमस्कृत्य युक्तिव्याख्यानार्थमाह वीरं विसयविरत्तं विगयमलं विमलणाणसंजुत्त। 'पणविवि वीरजिणिदं पमाणणयलक्खणं वौच्छं॥१६५॥ आगमादेव पर्याप्ते किं युक्तिप्रयासेनेति तं प्रत्याह जस्स ण तिवग्गकरणं णहु तस्स तिवग्गसाहणं होई। वग्गतियं जइ इच्छह ता तियवग्गं मुणह पढमं ॥१६६।। 'णिक्खेव णय पमाणं छद्दव्वं सुद्ध एव जो अप्पा। तक्कं पवयणणामं अज्झप्पं होइ हु तिवरगं ॥१६७॥ इस तरह जो द्रव्योंके स्वभावको जानकर श्रद्धागुण (सम्यग्दर्शन ) से सुशोभित हुआ ज्ञानी चारित्ररूपी रत्नसे परिपूर्ण होता है, अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक चारित्रको धारण करता है वह मोक्षको प्राप्त करता है ॥१६४।। पदार्थाधिकार सम्पूर्ण । वर्तमान धर्मतीर्थ के स्वामी भगवान् महावीरको नमस्कार करके प्रमाणनय रूप युक्तिका व्याख्यान करने की प्रतिज्ञा करते हैं कर्मोको जीतनेसे वीर, विषयोंसे विरक्त, कर्ममलसे रहित और निर्मल केवलज्ञानसे युक्त जिनेन्द्र महावीरको नमस्कार करके प्रमाण और नयका लक्षण कहूँगा ॥१६५।। आगम ही पर्याप्त है, युक्तिको जानने के प्रयाससे क्या लाभ ? ऐसा माननेवालेको लक्ष्य करके ग्रन्थकार कहते हैं जो त्रिवर्गको नहीं जानता,वह त्रिवर्गका साधन नहीं कर सकता। अतः यदि त्रिवर्गको इच्छा है तो पहले त्रिवर्ग को जानो ॥१६६।। आगे त्रिवर्गका कथन करते हैं निक्षेप,नय और प्रमाण तो तर्क या युक्ति रूप प्रथम वर्ग है, छह द्रव्योंका निरूपण प्रवचन या आगम रूप दूसरा वर्ग है और शुद्ध आत्मा अध्यात्मरूप तीसरा वर्ग है,इस प्रकार यह त्रिवर्ग है ॥१७॥ विशेषार्थ-आगममें कहा है कि जो पदार्थ प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा सम्यक् रीतिसे नहीं जाना जाता, वह पदार्थ युक्त होते हुए भी अयुक्तकी तरह प्रतीत होता है और अयुक्त होते हुए भी युक्तकी तरह प्रतीत होता है। अर्थात प्रमाण,नय और निक्षेपके द्वारा पदार्थकी सम्यक् आलोचना करना ही उचित है, उसके बिना यथार्थ वस्तुकी प्रतीति नहीं होती। इन तीनोंको ग्रन्थकारने तर्क या युक्ति कहा है। अकलंकदेवने भी लघीयस्त्रयमें प्रमाण,नय और निक्षेपका कथन करनेको प्रतिज्ञा करते हुए कहा है-'ज्ञानको १. जो सुद्धाणगुण अ० क० ख० ज० । जो सद्दहणगुणं मु० । २. -माह वीरमिति अ० मु० । ३. पणवैवि आ० । पणवमि ज० । पणमवि अ०। ४. पूज्यंते अ० आ० ख० । पूर्यते क० । पूर्यते जः । ५. 'प्रमाणनयनिक्षेपर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद्धाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥'-धवला, पु० ., पृ. १६ । 'जो ग पमाणणएहि णिस्खेवेण णिविखदे अत्थं । तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहाइ ।' -तिलोयपण्णत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy