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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० १५९ नवपदार्थस्वरूपं निगद्य तस्यैव स्वामित्वमाह गाथाचतुष्टयेन जीवाइं सत्ततच्चं पण्णत्तं जं जहत्थरूवेण । तं चेव णवपयत्था सपुण्णपावा पुणो होंति ॥१५९॥ सुहवेवं सुहगोदं सुहणामं सुहाउगं हवे पुण्णं । तविवरीयं पावं जाण तुमं दव्वभावभेदेहिं ॥१६०॥ उसके ज्ञान, सुख आदि गुण और चमक उठते हैं। संसार अवस्थामें इन्द्रियजन्य ज्ञान और इन्द्रियजन्य सुख होता था जो कि एक तरहसे पराधीन होनेसे दुःखरूप ही था। इन्द्रियोंकी पराधीनताके मिट जानेसे मुक्तावस्थामें स्वाधीन,स्वाभाविक अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख प्रकट हो जाते हैं जो कभी नष्ट नहीं होते। आगे नौ पदार्थोंका स्वरूप कहकर चार गाथाओंसे उसके स्वामित्वको बतलाते है यथार्थरूपसे जो जीवादि सात तत्त्व कहे हैं उन्होंमें पुण्य और पापको मिलानेसे नो पदार्थ होते हैं ॥१५९॥ विशेषार्थ-आचार्य कुन्दकुन्दने दर्शन प्राभृत (गाथा १९) में छह द्रव्य, नो पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्व कहे है । अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं । इनको द्रव्य संज्ञा है। द्रव्य शब्दसे जिनागम में इन्हींका बोध होता है। इनमें से काल द्रव्यको छोड़कर शेष पाँचोंको अस्तिकाय कहते हैं। क्योंकि ये पांचों द्रव्य .बहुप्रदेशी हैं,जैसे शरीर बहुप्रदेशी है । यद्यपि पुद्गलका परमाणु एकप्रदेशी है, किन्तु अन्य परमाणुओंके साथ बंधकर वह भी बहप्रदेशो कहलाता है। इसलिए उपचारसे बहुप्रदेशी कहा है। किन्तु कालद्रव्य सदा एकप्रदेशी ही रहता है । यद्यपि कालाणु असंख्यात है, किन्तु वे आपसमें परमाणुकी तरह कभी बँधते नहीं है, रत्नोंकी तरह सदा अलग-अलग ही रहते हैं ,इसलिए वे काय नहीं है । जीव, अजीव,आस्रव, बन्ध,संवर,निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्त्व हैं और इनमें पुण्य और पापको मिला देनेसे नौ पदार्थ कहे जाते हैं। उत्तरकालीन समस्त शास्त्रोंमें यही कयन किया गया है। यद्यपि नियमसारमें' आचार्य कुन्दकुन्दने जीवादि छह द्रव्योंको भी 'तत्त्वार्थ' शब्दसे कहा है, किन्तु 'तत्त्व'शब्द जीवादि सातके अर्थ में ही रूढ़ है। मूलवस्तु है 'अर्थ', उसका व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ होता है जिसका निश्चय किया जाये अर्थात् ज्ञानके विषयभूत पदार्थ । कुन्दकुन्दने ही प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारके प्रारम्भमें अर्थको द्रव्यमय कहा है। और द्रव्यको गुणमय कहा है । उनमें पर्याय होती हैं। इस तरह द्रव्य संज्ञा गुणपर्यायात्मकताकी सूचक है। किन्तु तत्त्वार्थ' संज्ञा-जो अर्थ जिस रूपमें अवस्थित है उसका उसी रूपमें भवन तत्त्व है और तत्त्वसे विशिष्ट अर्थको तत्त्वार्थ कहते हैं। तत्त्वार्थमें जीव और अजीव ये दो मूल पदार्थ हैं, जिनका अस्तित्व भी भिन्न है और स्वभाव भी भिन्न है। यहां अजीवसे मुख्यतया पुद्गलका ही ग्रहण किया गया है। क्योंकि जीव और पुदगलके संयोग और वियोगसे ही बाकीके पांच तत्त्वोंकी या सात पदार्थों की रचना हुई है। अतः मुमुक्षुके लिए सारभूत तत्त्व सात ही हैं। किन्तु उनमें पुण्य और पापको मिला देनेसे उनको संज्ञा पदार्थ क्यों हो जाती है.ये किसी आचार्यने स्पष्ट नहीं किया। इससे इतना तो स्पष्ट है कि पुण्य और पाप तत्त्वभत नहीं है, या फिर आस्रव और बन्धमें उनका अन्तर्भाव हो जाता है, अतः तत्त्व दृष्टिसे या तो वे आस्रवरूप हैं या बन्धरूप हैं। शुभ वेदनीय, शभ गोत्र, शभ नाम और शुभ आय ये पुण्य कर्म हैं और उसके विपरीत अर्थात् अशुभ वेद,अशुभ गोत्र,अशुभ नाम और अशुभ आयु पाप कर्म हैं। ये कर्म द्रव्य और भावके भेदसे भेदरूप हैं ॥१०॥ १. 'जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं । संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ॥१०८॥ -पञ्चास्ति । 'छद्दन्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा'-दर्शनाप्राभृत १९ गा० । २. 'सद्वेद्यशुभा. युर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥२७॥ अतोऽन्यत्पापम् ॥३८॥'-तस्वार्थ सूत्र, अ.८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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