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________________ -१६३ ] नयचक्र अहवा कारणभूदा तेसि वयअव्वयाई इह भणिया। ते खलु पुण्णं पावं जाण इमं पवयणे भणियं ॥१६१॥ अज्जीव-पुण्णपावे असुद्धजीवे तहासवे बंधे। सामी मिच्छाइट्ठी सम्माइट्री हवदि सेसे ॥१६२॥ सम्यग्भूतस्य विषयिणः फलं दर्शयति सामी सम्मादिट्ठी जीवे संवरणणिज्जरा मोक्खो। 'सुद्धे चेदणरूवे तह जाण सुणाणपच्चक्खं ॥१६३॥ विशेषार्थ-आठ कर्मोमेंसे चार घाति कर्म तो पाप कर्म ही है , शेष चार अघाति कोंमें हो पुण्य-पापरूप भेद हैं। जैसे वेदनीय कर्मके दो भेद हैं-सातवेदनीय और असातवेदनीय । इनमेंसे सातवेदनीय पुण्य कर्म है और असातवेदनीय पाप कर्म है। इसी तरह गोत्रकर्मके दो भेदोंमें-से उच्चगोत्र पुण्य कर्म है और नीचगोत्र पाप कर्म है । आयु कर्मके चार भेदोंमें-से नरकायु पाप कर्म है और शेष तीन आयु पुण्य कर्म हैं। नाम कर्मके भेदोंमें-से मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पांच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीति, निर्माण और तीर्थंकर ये शुभ नाम कर्म पुण्यरूप हैं। नरकगति, तिथंचगति, चार जाति, अन्तके पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उपधात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति ये पापकर्म है। प्रत्येक कर्म द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है। जो पुद्गल परमाणु जीवके भावोंका निमित्त पाकर कर्मरूप परिणत हुए हैं उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। और जीवके रागद्वेषरूप भावोंको भावकर्म कहते हैं । द्रव्यकर्मके बिना भावकर्म नहीं होता और भावकर्म के बिना द्रव्यकर्म नहीं होता। दोनोंका परस्परमें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। अथवा उन कर्मोके कारणभूत जो व्रत,अव्रत आदि यहाँ कहे हैं उन्हें पुण्य और पापरूप जानो, ऐसा आगममें कहा है ॥१६१॥ विशेषार्थ'तत्त्वार्थसूत्रके' सातवें अध्यायमें व्रतोंका वर्णन है। उसकी 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीकामें प्रथम सूत्रकी उत्थानिकामें टीकाकार पूज्यपाद स्वामीने कहा है कि 'आस्रव पदार्थका व्याख्यान हो चुका । उसके प्रारम्भमें ही कहा है कि शुभयोगसे पुण्यकर्मका आस्रव होता है - यह सामान्यसे कहा है। उसीका विशेष रूपसे ज्ञान करानेके लिए शुभ क्या है यह कहते हैं।' इसके बाद इसी प्रथम सूत्रकी टीकामें यह शंका की गयी है कि व्रतको आस्रवका हेतु बतलाना ठीक नहीं है उसका अन्तर्भाव तो संवरके कारणोंमें किया गया है। आगे नौवें अध्यायमें 'संवरके हेतु गप्ति,समिति आदि कहे हैं। उनमेंसे दस धर्मोंमें-से संयम धर्ममें व्रतोंका अन्तर्भाव होता है।' इसके उत्तरमें पूज्यपाद स्वामीने कहा है कि संवरका लक्षण तो निवृत्ति है। किन्तु व्रत तो प्रवृत्तिरूप हैं-हिंसा, झूठ, चोरी आदिको त्यागकर अहिंसा, सत्यवचन, दी हुई वस्तुका ग्रहण आदि प्रवृत्ति मूलक क्रियाको प्रतीति व्रतोंसे होती है। अतः व्रत पुण्यकर्म में हेतु हैं और अव्रत-व्रतोंका पालन न करना पाप कर्ममें हेतु हैं। इसलिए ग्रन्थकारका कहना है कि यहाँ पुण्यसे पुण्यके हेतु व्रतोंको और पापसे पापके हेतु अवतोंका भी ग्रहण होता है। आगे इन सात तत्त्वोंके स्वामियोंका कथन करते हैं अजीव, पुण्य, पाप, अशुद्धजीव, आस्रव और बन्धका स्वामी तो मिथ्यादृष्टि है और शेषका स्वामी सम्यग्दष्टि है। शद्ध चेतनरूप जीव, संवर, निर्जरा और मोक्षका स्वामी सम्यग्दष्टि हैऐसा सम्यग्ज्ञानसे प्रत्यक्ष जानो ॥१६२-१६३॥ १. सुद्धो चेयणरूवो अ० क० ख० मु. ज.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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