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________________ ९० द्रव्यस्वभावप्रकाशक चिरबद्ध कम्मणिवहं जीवपदेसा हु जं च परिगलइ । सा णिज्जरा पत्ता दुविहा सविपक्क अविपक्का ॥ १५६ ॥ सयमेव कम्मगलणं इच्छारहियाण होइ सत्ताणं । सविपक्क णिज्जरा सा अविपक्कमुवायकरणादो ॥१५७॥ प्रत्याख्यानावरण कषायके उदय में होनेवाले असंयमको प्रधानतासे आती हैं। अतः एकेन्द्रियसे लेकर पाँचवें संयतासंयत गुणस्थानपर्यन्त उनका बन्ध होता है । आगे उसका अभाव होनेसे उनका संवर होता है । प्रमादकी प्रधानतासे जिन कर्मप्रकृतियोंका आस्रव होता है, छठें प्रमत्तसंयतगुणस्थानसे आगे प्रमादका अभाव होनेसे उनका संवर होता है। वे प्रकृतियाँ हैं—असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, और अयशः कोति । देवायुके बन्धके आरम्भका हेतु प्रमाद भी है और अप्रमाद भी है, अतः अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे उसका संवर हो जाता है । जिस कर्मके आसवका कारण केवल कषाय है, प्रमाद नहीं है, उसका निरोध होनेपर उसका आस्रव रुक जाता है । वह प्रमाद आदिसे रहित कषाय तीव्र, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन गुणस्थानों में पायी जाती है। उनमें से आठवें अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम संख्यातवें भाग में निद्रा और प्रचला बँधती हैं । उससे आगे के संख्यातवें भाग में तीस प्रकृतियाँ बँधती हैं - देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर । उसी गुणस्थान के अन्तिम समय में हास्य, रति, भय, जुगुप्साका बन्ध होता है । इन सभी प्रकृतियोंका तीव्रकषायसे आस्रव होता है | अतः अपने-अपने बन्धवाले भागसे आगे उनका संवर है। उससे पहले के गुणस्थानोंमें तो उनका बन्ध यथायोग्य होता ही है । नौवें अनिवृत्ति बादर साम्पराय गुणस्थान के प्रथम समयसे लेकर संख्यात भागों में पुरुषवेद और क्रोध संज्वलन बंधते हैं। उससे आगे के संख्यात भागों में मानसंज्वलन और मायासंज्वलन बंघते हैं । उसीके अन्तिम समयमें लोभसंज्वलन बँधता है। इन प्रकृतियोंका आस्रव मध्यमकषायसे होता है। अतः निर्दिष्ट भागसे आगे उनका संवर जानना । पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्रका बन्ध मन्दसंज्वलनकषायके उदयमें दसवें गुणस्थानतक होता है, आगे उनका संवर है । केवल योगसे केवल एक सातावेदनीय ही बँधती है । अतः तेरहवें गुणस्थानसे आगे उसका संवर होता है । संक्षेप में यह संवरकी प्रक्रिया है । 1 [ गा० १५६ निर्जराका स्वरूप और भेद जीवके प्रदेशों के साथ चिरकालसे बँधे हुए कर्मसमूहको परिगलना ( झड़ना ) को निर्जरा कहते हैं । उस निर्जराके दो भेद हैं—सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा ॥ इच्छा के बिना प्राणियोंके जो स्वयं ही कर्म विगलित होते हैं वह सविपाक निर्जरा है । और उपाय करनेसे जो कर्मों की निर्जरा होती है वह अविपाक निर्जरा है ।। १५६-१५७॥ Jain Education International विशेषार्थ - बँधने के पश्चात् कर्म आत्मा के साथ रहते हैं । जब वे उदयमें आकर अपना फल देते हैं और फल देकर झड़ जाते हैं उसे ही निर्जरा कहते हैं। उस निर्जराके दो भेद हैं- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । सविपाक निर्जराको स्वकाल प्राप्त निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि बंधे हुए कर्म उदयकाल आनेपर ही अपना फल देकर झड़ जाते हैं । अतः अपने समयपर ही झड़नेके कारण उसे स्वकालप्राप्त या सविपाक निर्जरा कहते हैं । सविपाक अर्थात् विपाककाल आनेपर होनेवाली निर्जरा सविपाक निर्जरा है । जैसे वृक्षपर लगा हुआ आमका फल अपने समयपर पककर टपक पड़ता है। जिस कर्मका विपाककाल तो नहीं आया, किन्तु तपस्या आदिके द्वारा बलपूर्वक उदयमें लाकर खिरा दिया गया उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं । जैसे कच्चे आमोंको पालमें दबाकर समयसे पहले पका लिया जाता है । पहली निर्जरा तो सभी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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