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नयचक्र
विशेषार्थ-कर्मों के आस्रवको रोकनेका नाम संवर है। संवरके भी दो भेद हैं-भावसंवर और द्रव्यसंवर । आत्माका जो भाव कर्मोको रोकने में कारण होता है वह भावसंवर है और द्रव्यकर्मोके रुकनेका नाम द्रव्यसंवर है । भावसंवरपूर्वक ही द्रव्यसंवर होता है । अत: जिन आत्मभावोंका निमित्त पाकर द्रव्यकर्मोंका आस्रव होता था, उनको रोकनेसे ही द्रव्यकर्मोंका आस्रव रुक सकता है। इन्द्रियां, कषाय और संज्ञा (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ) ये भाव पापास्रव हैं। इनका जितने अंशमें जितने कालतक निग्रह किया जायेगा उतने अंशमें उतने कालतक पापास्रवका द्वार बन्द रहेगा। किन्तु सुख-दुःखमें समभाव रखनेवाले जिस संयमी साधुके सभी पदार्थों में राग,द्वष और मोह नहीं होता उसके शुभ और अशुभ कर्म नहीं आते, किन्तु उनका संवर हो जाता है,इसलिए मोह, राग और द्वेषरूप परिणामोंका रुकना भावसंवर है । और उसका निमित्त पाकर योगके द्वारा आनेवाले पुदगलोंका शभाशभ कर्मख्य न होना द्रव्यसंवर है। जिस मुनिके जब पुण्यरूप शुभोपयोग और पापरूप अशुभोपयोग नहीं होता उसके शुभाशुभ कर्मका संवर होता है। इस तरह संवरके लिए राग-द्वेष और मोहरूप भावोंको रोकना आवश्यक है और उनको रोकनेके लिए मूलकारण भेदविज्ञान है । भेदविज्ञानके बिना इनको नहीं रोका जा सकता। भेदविज्ञानका एक उदाहरण इस प्रकार हैआत्मामें ज्ञान भी है और क्रोधरूप भाव भी है। दोनों ही अनादि हैं। इसीसे अज्ञानी जीव जैसे ज्ञानको अपना मानता है,क्रोधको भी अपना मानता है। ऐसा व्यक्ति जैसे ज्ञानरूप परिणत होता है वैसे ही कषायके उदयमें क्रोधरूप परिणत होता है। जब उसे यह ज्ञान होता है कि ज्ञान तो मेरा स्वरूप है,वह कहीं बाहरसे नहीं आता किन्तु क्रोध तो कर्मजन्य विकार है वह मेरा स्वरूप नहीं है, अतः कषायका उदय होनेपर भी मुझे उस रूप परिणत नहीं होना चाहिए। इस भेदविज्ञानके होते ही वह उससे निवृत्त हो जाता है। और इस तरह उसकी आत्मामें संवरका द्वार खुल जाता है। शास्त्रोंमें जो गुप्ति, समिति, दस धर्म, बारह भावना, बाईस परीषहजय और चारित्रको संवरका कारण कहा है, वह सब उक्त प्रकारको आन्तरिक और बाह्य परिणतिमें ही सहायक होते हैं। इसीसे वे संवरके हेतु कहे हैं। भेदविज्ञानसे शुद्धात्माको प्रतीति और उपलब्धि होती है। और शुद्धात्माकी उपलब्धि होनेपर जीव मिथ्यात्व आदि भावरूप परिणमन नहीं करता और उससे नवीन कर्मोंका संवर होता है। बन्धके कारण आगममें पांच कहे हैं-मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद, कषाय और योग । ज्यों-ज्यों इनका अभाव होता जाता है, त्यों-त्यों इनकी प्रधानतासे होनेवाला कर्मास्रव रुकता जाता है। आगे यह विचार करते हैं कि किस गुणस्थानमें किस कर्मका संवर होता है-पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यादर्शनकी प्रधानतासे जो कर्म आता है, उस मिथ्यात्वका निरोध हो जानेपर आगेके सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंमें उसका संवर होता है। वे कर्म है-मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जाति, हुण्डकसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारणशरीर ये १६। दूसरा कारण है-असंयम । उसके तीन भेद हैं-अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें होनेवाला असंयम, अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदय में होनेवाला असंयम, और प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयमें होने वाला असंयम । उस-उस असंयमके अभावमें उसउसके कारण होनेवाले कर्मास्रवका निरोध हो जाता है। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तियंचगति, मध्यके चार संस्थान, चार संहनन, तियंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, नीचगोत्र । ये पचीस कर्मप्रकृतियाँ अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें होनेवाले असंयमकी प्रधानतासे आती हैं । अतः एकेन्द्रियसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टितक उनका बन्ध होता है। आगे उसका अभाव होनेसे उन प्रकृतियोंका भी संवर होता है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान,माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी ये दस प्रकृतियां अप्रत्याख्यानावरणकषायके उदयमें होनेवाले असंयमकी प्रधानतामें आती है।अतः एकेन्द्रियसे लेकर चौथे असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानपर्यन्त इनका बन्ध होता है। आगे उसका अभाव होनेसे उनका संवर होता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध,मान, माया,लोभ, ये चार प्रकृतियाँ
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