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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० १४९इदानी प्रवचनसारामिप्रायः कथ्यते, तत्वसंख्यामुपदिश्य तस्यैव भेदं स्वभावं व्याख्याति 'जीवाजीव तहासव बंधो संवरण णिज्जरा मोक्खो। एदेहि सत्ततच्चा सवित्थरं पवयणे जाण ॥१४९॥ आगे प्रवचनसारके अभिप्रायको कहते हैं। तत्त्वकी संख्या बतलाकर उसके भेद तथा स्वभावका व्याख्यान करते हैं जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, इन सात तत्त्वोंको विस्तारपूर्वक आगमसे जानना चाहिए ॥१४९॥ विशेषार्थ-जो अर्थ जिस रूपसे अवस्थित है उसका उसी रूपसे होनेका नाम तत्त्व है।दूसरे शब्दोंमें सारभूतको तत्त्व कहते हैं। मुमुक्षुके लिए सारभूत तत्त्व सात हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जो चैतन्यस्वरूप है वह जीव है। और जो चैतन्यस्वरूप नहीं है वह अजीव है। शुभ और अशुभ कर्मों के आनेके द्वारको आस्रव कहते हैं। आत्मा और कर्मके प्रदेशोंके परस्परमें अनुप्रवेशको बन्ध कहते हैं। आस्रवके रोकनेको संवर कहते हैं। बन्धे हए कर्मोके एकदेश क्षयको निर्जरा कहते हैं। और आत्माके समस्त कर्मबन्धनसे छूट जानेको मोक्ष कहते हैं। इन सात तत्त्वोंमें सबसे प्रथम जीवका नाम आता है,क्योंकि यह सब कथन उसीके लिए है, वही ज्ञाता द्रष्टा है। संसार दशामें अजीव जीवका सहकारी है। यदि दोनोंका मेल न होता तो संसार ही न होता । अतः जीवके बाद अजीवका नाम आता है। जीव और अजीवके मेलसे आस्रव होता है। अतः उनके बाद आस्रवका नाम आता है। आस्रवपूर्वक हो बन्ध होता है। अतः आस्रवके बाद बन्धका नाम आता है। संवर बन्धका विरोधी है। संवर होनेपर बन्ध नहीं होता,अतः बन्धका प्रतिपक्षी बतलानेके लिए बन्धके बाद संवरका नाम आता है। संवरके होनेपर निर्जरा भी होती है अतः संवरके बाद निर्जराका नाम आता है। और सबके अन्त में मोक्षकी प्राप्ति होती है. इसलिए अन्तमें मोक्ष का नाम आता है। यों तो सभी तत्त्व जीव और अजीवमें गर्भित हो जाते हैं, क्योंकि आस्रव, बन्ध,संवर निर्जरा और मोक्ष या तो जीवरूप हो सकते हैं या अजीवरूप हो सकते हैं। जीव और अजीवसे बाहर तो कुछ है ही नहीं। फिर भी इन सबको अलग-अलग कहनेका एक उद्देश्य है। तत्त्वोंके विवेचनका उद्देश्य हैमोक्ष और वह होता है संसारपूर्वक । संसारके प्रधान कारण हैं-आस्रव और बन्धातथा मोक्षके प्रधान कारण हैं-संवर और निर्जरा। इस तरह संसार और मोक्षकी प्रक्रियाको जाननेके लिए सातों तत्त्वोंका स्वरूप जानना आवश्यक है। इसको थोड़ा और स्पष्ट कर देना उचित होगा। आस्रव करनेवाला और जिसका आस्रव होता है,ये दोनों आस्रव हैं। बन्ध करनेवाला और जो कर्म बन्धता है,ये दोनों बन्ध हैं। संवर करनेवाला और जिस कर्मका संवर होता है, ये दोनों संवर हैं। निर्जरा करनेवाला और जिसकी निर्जरा होती है, ये दोनों निर्जरा हैं । छूटनेवाला और जो छूटता है-ये दोनों मोक्ष हैं । दूसरे शब्दोंमें भावास्रव-द्रव्यास्रव, भावबन्धद्रव्यबन्ध, भावसंवर-द्रव्यसंवर, भावमोक्ष-द्रव्यमोक्ष ये आसव,बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षरूप हैं। और दोनों जीव और अजीव है । 'तत्त्वार्थसूत्र में इन्हीं सात तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है और समयसार में इन्हीं सात तत्त्वोंके भूतार्थनयसे परिज्ञानपूर्वक श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। इन दोनों कथनों में क्या दृष्टिभेद है,यही विवेचनीय है। यह तो स्पष्ट है कि उक्त तत्त्व अकेले जीव या अकेले अजीवके नहीं हो सकते। अब यदि जीव और पुद्गलकी अनादि बन्ध पर्यायको लेकर बाह्यदृष्टिसे दोनोंको एक अनुभव करें, तब तो वे भूतार्थ प्रतीत होते हैं। किन्तु यदि एक जीवद्रव्यके स्वभावको लेकर अनुभव करें तो उक्ततत्त्व अभूतार्थ है। इसलिए भूतार्थनयसे इन तत्त्वोंमें एक जीव ही दृष्टिगोचर होता है। तथा अन्तर्दृष्टिसे ज्ञायकभाव १. 'जीवाजीवाभावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर णिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ॥१०८।। -पञ्चास्ति। 'आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खा सपण्णपावा जे। जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणामो ॥२८॥'-द्रव्यसं० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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