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________________ -१५२] नयचक्र भणिया जीवाजीवा पुव्वं जे हेउ आसवाईणं । ते आसवाई तच्चं साहिज्जं तं णिसामेह ॥१५०॥ दुविहं आसवमग्गं णिद्दिष्टुं दव्वभावभेदेहि । मिच्छत्ताइचउक्कं जीवे भावासवं भणियं ॥१५१॥ 'लधूण तण्णिमित्तं जोगं जं पुग्गलं पदेसत्यं ।। परिणमदि कम्मरूवं तंपि हु दव्वासवं जीवे ॥१५२॥ जीव है, जीवके विकारका कारण अजीव है। आस्रव, संवर,बन्ध, निर्जरा,मोक्ष ये केवल जीवके विकार नहीं हैं। किन्तु अजीवके विकारसे जीवके विकारके कारण है। ऐसे ये सात तत्त्व जीवद्रव्यके स्वभावको छोड़कर स्वपरनिमित्तक एक द्रव्यपर्यायरूपसे अनुभव किये जानेपर तो भतार्थ हैं और सब कालोंमें स्खलित न होनेवाले एक जीवद्रव्य स्वभावको लेकर अनुभव किये जानेपर अभूतार्थ है। इसलिए इन तत्त्वोंमें भूतार्थनयसे एक जीव ही प्रकाशमान है। इस तरह दृष्टिभेदसे कथन जानना चाहिए। दोनोंका आन्तरिक उद्देश्य एक ही है। 'तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वका बोध करानेकी दृष्टिसे व्यवहारकी प्रधानता है और समयसार में तत्त्वको प्राप्तिकी दृष्टिसे निश्चयकी प्रधानता है,अन्य कोई भेद नहीं है । __पहले जो जीव, अजीव, आस्रव आदिके हेतु कहे थे, उन आस्रवादि तत्त्वोंको साधते हैं उसे सुनें ॥१५०॥ आगे आस्रवके भेदपूर्वक भावास्रवको कहते हैं द्रव्यास्रव और भावास्रवके भेदसे आस्रवमार्ग दो प्रकारका कहा है। जीवमें पाये जानेवाले मिथ्यात्व,अविरति,कषाय और योगको भावास्रव कहा है ।।१५१॥ विशेषार्थ-जीवके जिस भावका निमित्त पाकर कर्मोंका आस्रव होता है उसे भावास्रव कहते हैं । वे भाव है-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । यद्यपि 'तत्त्वार्थसूत्रमें योगको आस्रवका कारण कहा है और योगसहित मिथ्यात्व आदिको बन्धका कारण कहा है। किन्तु जहाँ मिथ्यात्व होता है वहां आगेके सभी कारण रहते हैं और जहाँ अविरति होती है मिथ्यात्व नहीं होता वहाँ भी आगेके सब कारण रहते हैं। अतः जहाँ जितने कारण होते हैं वे सभी अपने-अपने निमित्तसे होनेवाले कर्मोके आस्रवमें कारण होते हैं। कुछ कर्म प्रकृतियां ऐसी हैं मिथ्यात्वके उदयमें ही जिनका आस्रव होता है। इसी तरह कुछका अमुक-अमुक कषायके उदयमें ही आस्रव होता है । अतः मिथ्यात्व आदिको आस्रवका कारण कहा है। वैसे आठ प्रकारके कर्मोके आस्रवका कारण मिथ्यात्व आदि चार हैं, किन्तु इन चारोंका भी मूल कारण राग-द्वेष,मोह है। ये राग-द्वेष,मोह कर्मजन्य हैं। आत्माके साथ उनका संयोग सम्बन्ध है । आत्मा और ज्ञान की तरह तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है। किन्तु अज्ञानी जीव क्रोधादिभावोंको भी वैसा ही अपना मानता है जैसा ज्ञानादिको मानता है। चिरकालसे साथ रहते-रहते उसमें यह भेदज्ञान नहीं हो पाता कि क्रोधादि मेरे नहीं हैं अतः जब क्रोध कषायका उदय होता है तो वह निःशंक होकर क्रोध करता है, राग करता है, मोह करता है। ऐसा करनेसे नवीन कर्मोंका आस्रव होता है। इसमें जो जीवके राग-द्वेष, मोहरूप भाव हैं वे भावास्रव हैं और उनके निमित्तसे जो पौद्गलिक द्रव्यकर्मोका आस्रव होता है वह द्रव्यास्रव है । यही बात आगे कहते हैं । उन मिथ्यात्व आदिरूप जीवके भावोंका निमित्त पाकर जीवके प्रदेशोंमें स्थित कर्मरूप होने योग्य जो पुद्गल कर्मरूपसे परिणत होते हैं वह द्रव्यास्रव है ॥१५२॥ १. दट्टण । २. 'आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेयो। भावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ॥२९॥'-द्रव्यसं०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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