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________________ -१४८ ] नयचक्र सर्वेषामस्तित्वं कार्यत्वं पञ्चानां प्रदेशसंख्यां चाह'सव्वेसि अत्थित्तं नियणियगुणपज्जएहि संजुत्तं । पंचेव अत्थिकाया उवविट्ठा बहुपदेसादो ॥ १४७॥ जीवे धमाधम्मे हुति पदेसा हु संखपरिहीणा । गणे ताणंता तिविहा पुण पोंगले गेया ॥१४८॥ इति पञ्चास्तिकाया: 1 सब द्रव्यों का अस्तित्व तथा पाँच द्रव्योंके कायत्वका कथन करते हैं अपने-अपने गुणपर्यायोंसे संयुक्त सभी द्रव्य अस्तिरूप हैं । किन्तु उनमें से पाँच द्रव्योंको ही अस्तिकाय कहा है, क्योंकि वे बहुप्रदेशी हैं ।। १४७॥ विशेषार्थ - अस्तित्व वास्तव में द्रव्यका स्वभाव है; क्योंकि वह परनिरपेक्ष है, अनादि-अनन्त है, अहेतुक है । यद्यपि द्रव्य और उसके अस्तित्वमें भाव और भाववान्‌को अपेक्षा भेद है— अस्तित्व भाव है और द्रव्य भाववान है, तथापि दोनोंमें प्रदेश भेद नहीं है— द्रव्यके और अस्तित्व के प्रदेश जुदे - जुदे नहीं हैं | अतः द्रव्यके साथ उसका एकत्व है । ऐसी स्थिति में उसे द्रव्यका स्वभाव क्यों नहीं माना जायगा ? अवश्य ही माना जायगा । प्रत्येक द्रव्यका अस्तित्व उसी में समाप्त हो जाता है। जो एक द्रव्यमें अस्तित्व है वही दूसरे द्रव्य में नहीं है । किन्तु एक ही द्रव्य और उसके गुण तथा पर्यायोंका अस्तित्व जुदा-जुदा नहीं है, उन सबका एक ही अस्तित्व है; क्योंकि वे सब परस्पर सापेक्ष हैं, उनमें से यदि एक न हो तो शेष दो भी नहीं हो सकते । इसी प्रकार उत्पाद, व्यय, धौव्यका और द्रव्यका अस्तित्व भी एक ही है। क्योंकि उत्पाद, व्यय, धौव्य द्रव्यसे ही उत्पन्न होते हैं और द्रव्य उत्पाद, व्यय, धौव्यपर अवलम्बित है । इस प्रकार द्रव्य अस्तित्वमय या सत्स्वरूप है । 'द्रव्य छह हैं, किन्तु उनमें से कायरूप पाँच ही हैं; काय अर्थात् शरीर की तरह जो हों। जैसे शरीर जीव और पुद्गल ये पाँच द्रव्य बहुपुद्गल परमाणुओं का समूहरूप होता है, वैसे ही धर्म अधर्म, आकाश, प्रदेशी होते हैं इसलिए इन्हें काय कहा है । अस्ति ( सत् ) और काय दोनोंको मिलाकर इन्हें अस्तिकाय कहते हैं । कालद्रव्य भी सत्स्वरूप तो है, किन्तु काय नहीं है; उसके कालाणु सदा अलग-अलग ही रहते हैं । पुद्गल परमाणुओंकी तरह वे कभी परस्पर बद्ध नहीं होते, इसलिए उसे अस्तिकाय नहीं कहा है । आगे प्रत्येक द्रव्यकी प्रदेश संख्या बतलाते हैं जीवद्रव्य, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यमें असंख्यात प्रदेश होते हैं । आकाशमें अनन्तानन्त प्रदेश हैं और पुद्गल में संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश जानना चाहिए ॥ १४८ ॥ विशेषार्थ - एक जीवद्रव्य, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य प्रत्येकके असंख्यात, असंख्यात प्रदेश होते हैं। यह पहले बतला आये हैं कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य तो लोकव्यापी हैं । और एक परमाणु जितने आकाशको रोकता है उसे प्रदेश कहते हैं | अतः धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं। एक जीव भी लोकाकाशके बराबर होनेसे असंख्यात प्रदेशी है । आकाश सर्वत्र व्याप्त है अतः वह अनन्तानन्त प्रदेशी है। पुद्गलका परमाणु एक प्रदेशी है, दो परमाणुओंके मेलसे बना द्वद्यणुक स्कन्ध दो प्रदेशी है। तीन परमाणुओंके मेलसे बना स्कन्ध तीन प्रदेशी है । इसी तरह संख्यात परमाणुओंके मेलसे बना स्कन्ध संख्यात प्रदेशी है । असंख्यात परमाणुओंके मेलसे बना स्कन्ध असंख्यात प्रदेशी है और अनन्त परमाणुओंके मेलसे बना स्कन्ध अनन्त प्रदेशी है। इस तरह कोई पुद्गल संख्यात प्रदेशी, कोई असंख्यात प्रदेशी और कोई पुद्गल अनन्त प्रदेशी होता है ॥ इस प्रकार पंचास्ति कार्योंका कथन समाप्त हुआ । ८५ १. जेसि अत्थिसहाओ गुणेहि सह पज्जएहि विविहेहि । ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहि तइलुक्कं ||५|| - पञ्चास्ति० । 'संति जदो तेणेदे अत्थित्ति भगंति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा तम्हा काया य अत्थिकाया य ॥५४॥ ' - द्रव्यसं० । २. 'होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे अनंत आयासे । मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ॥ २५ ॥ ' - द्रव्यसं० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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