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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० १४६ द्रव्यक्षेत्रकालमावेश्च स्वभावा द्रष्टव्या दव्वे खेत्ते काले भावे भावा फुडं पलोएज्जा। एवं हि थोवबहगा णायव्वा एण मग्गेण ॥१४६॥ एवं द्रव्याधिकारः समाप्तः । अर्थ सिर ऊँचा करके किया है, क्योंकि कोशमें 'विगत' का अर्थ सावधान भी है। सावधान मनुष्यका सिर तना हुआ होता है। अस्तु, लोकके तीन भेद हैं अधोलोक, मध्यलोक और ऊवलोक। पैरोंके तलसे लेकर कटिप्रदेशसे नीचेका भाग अधोलोक है। कटिप्रदेशका भाग मध्यलोक है उससे ऊपरका भाग ऊर्ध्वलोक है। लोक १४ राजू ऊँचा है । लोकके नोचे उसका विस्तार सात राजू है,फिर क्रमसे घटते-घटते मध्यलोकके पास उसका विस्तार एक राजू है। इसके ऊपर क्रमसे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्गके समीप उसका विस्तार पांच राज़ है। फिर उससे ऊपर क्रमसे घटते-घटते लोकके अग्रभागमें विस्तार एक राजू है। यह पूरब पश्चिम विस्तार है। दक्षिण उत्तर में सर्वत्र सात राजू मोटाई है। इसका क्षेत्रफल इस प्रकार जानना चाहिए-अधोलोकका विस्तार नीचे सात राजू है.ऊपर सात राजकी ऊँचाईपर विस्तार एक राज है,अतः ७ + १ =८:२= ४४७४७ = १९६ राजू अधोलोकका क्षेत्रफल होता है। अधोलोकके ऊपर विस्तार एक राजू है और ऊर्ध्वलोकके मध्यमें ३३ राजूकी ऊंचाईपर विस्तार पांच राजू है । अतः ५+ १ =६ : २ = ३४३४७ = १४ आधे ऊर्ध्वलोकका क्षेत्रफल होता है। पूरे ऊर्ध्वलोकका क्षेत्रफल १४७ राजू है । १४७ राजूमें १९६ जोड़नेसे समस्त लोकका क्षेत्रफल ३४३ राजू होता है। लोकके मध्यमें एक राजू चौड़ी और १४ राजू ऊँची त्रसनाली है । त्रसजीव उसीमें रहते हैं । केवल उपपाद और मारणान्तिक समुद्घात अवस्थामें ही सजीव सनालीके बाहर पाया जाता है। बसनालोसे बाहरका कोई एकेन्द्रिय जीव प्रसपर्यायका बन्ध करके, मृत्युके पश्चात सनालीमें जन्म लेने के लिए गति करता है,तब उसके उस नाम कर्मका उदय होनेसे उपपादकी अपेक्षा त्रसजीव वसनालीके बाहर पाया जाता है। जब कोई त्रसनालीका सजीव एकेन्द्रिय पर्यायका बन्ध करके सनालीसे बाहर एकेन्द्रिय पर्यायमें जन्म लेनेवाला होता है और मारणान्तिक समघात करता है तब सपर्यायमें होते हुए भी उसके आत्मप्रदेश सनालीके बाहर पाये जाते हैं। इस तरह त्रसजीव त्रसनालीमें ही पाये जाते हैं । किन्तु १४ राजू ऊँची पूरी त्रसनालीमें त्रसजीव नहीं पाये जाते । इसीसे त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें प्रसनालीको कुछ कम तेरह राजू ऊँची कहा है। इसका कारण यह है कि जितनी लोककी ऊँचाई है,उतनी ही त्रसनालीकी ऊँचाई है। उसमें से सातवें नरकके नीचे एक राजूमें निगोदिया जीव ही रहते हैं । अतः एक राजू कम होनेसे तेरह राजू ही रहते हैं। उसमें से भी सातवीं पृथ्वीके मध्य में ही नारकी रहते हैं। नीचेको ३९९९३ योजन पृथ्वीमें कोई त्रस नहीं रहता है। तथा ऊर्ध्वलोकमें सर्वार्थसिद्धिविमान तक ही सजीव रहते हैं। सर्वार्थसिद्धिसे ऊपरके क्षेत्रमें कोई त्रसजीव नहीं रहता । अतः सर्वार्थसिद्धिसे लेकर आठवीं पृथिवी तकका अन्तराल १२ योजन, आठवीं पृथिवीको मोटाई ८ योजन और आठवीं पृथिवीके ऊपर ७५७५ धनुष प्रमाण क्षेत्र त्रसजीवोंसे शून्य है। अतः नीचे और ऊपरके उक्त धनषोंसे कम १३ राजू प्रमाण त्रसनालीमें त्रसजीव जानने चाहिए । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा स्वभावोंके चिन्तनकी प्रेरणा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा भावोंको स्पष्ट रूपसे जानना, देखना चाहिए। इस प्रकार इस मार्गसे भावोंका अल्पबहुत्व भी जानना चाहिए॥१४६।। इस प्रकार द्रव्याधिकार समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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