SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० १३०बीजाङ कुरन्यायेन कर्मणः तस्यैव फलमुपदर्शयति गाथात्रयेणेति कम्मं कारणभूदं देहं कज्जं खु अक्ख देहादो। अक्खाद विसयरागं रागादि णिबज्झदे तंपि ॥१३०॥ तेण चउग्गइदेहं गेण्हइ पंचप्पयारियं जीवो। 'एवं तं गिण्हंतो पुणो पुणो बंधदे कम्मं ॥१३१।। इह इव मिच्छदिट्ठी कम्मं संजणइ कम्मभावेहि । जह बीयंकुरणायं तं तं अवरोप्परं तह य ॥१३२॥ है,किन्तु परमार्थ दृष्टिसे अन्यका परिणमन अन्याधीन होता ही नहीं। यदि ऐसा हो तो वस्तुव्यवस्था ही गड़बड़ा जायेगी। समयसारके कर्तृकर्म अधिकारकी गाथा १२३ का व्याख्यान करते हुए टीकाकार अमृतचन्द्राचार्यने लिखा है- यदि पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवको क्रोधादिभाव रूपसे परिणमाता है तो वह पुद्गल कर्म क्रोधादि स्वयं अपरिणममान जीवको क्रोधादि भाव रूपसे परिणमाता है या स्वयं परिणममान जीवको क्रोधादि भावरूपसे परिणमाता है ? जो स्वयं अपरिणममान है उसे कोई दूसरा तो परिणमाने में समर्थ हो नहीं सकता क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है, अन्यके द्वारा वह शक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती। यदि वह स्वयं परिणममान है तो दूसरे परिणमानेवालेकी अपेक्षा क्यों करेगा क्योंकि वस्तुकी शक्ति परकी अपेक्षा नहीं करती। अतः जीवमें परिणमन शक्ति स्वाभाविक है। उस परिणमन शक्तिके होनेसे जीव जिस अपने परिणामको करता है उसका उपादान कर्ता वही जीव हैं; द्रव्यकर्मका उदय तो निमित्तमात्र है। ऐसा ही सर्वत्र जानना चाहिए। इसी तरह सराग परिणाम और वीतराग परिणामोंका उपादान कारण स्वयं जीव ही है । बाह्य वस्तु तो निमित्त मात्र है। जब अन्तरंगमें सराग परिणति होती है तो नग्न वीतराग मूर्ति भी रागका निमित्त बन जाती है और जब वीतराग परिणति होती है तो गितामें निमित्त बन जाती है। अतः अपनी परिणतिको सुधारनेकी आवश्यकता है। दूसरोंको दोष देनेकी आवश्यकता नहीं है। बीजांकुर न्यायसे कर्म और उसके फलको तीन गाथाओंसे बतलाते हैं कर्म कारणभूत है, उसका कार्य शरीर है। शरीरमें इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंमें राग होता है, उससे रागादिका बन्ध होता है। इस नवीन बन्धसे चतुर्गतिमें जीव औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माणके भेदसे पाँच प्रकारके शरीरको ग्रहण करता है। इस तरह उसको ग्रहण करता हुआ जीव पुनः-पुनः कर्मका बन्ध करता है। ऐसे ही मिथ्यादृष्टि कर्मसे कर्मको उत्पन्न करता है। जैसे बीजांकुर न्यायमें बीजसे अंकुर उत्पन्न होता है और अंकुरसे बीज उत्पन्न होता है, वैसे ही कर्मके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए॥१३०-१३२॥ _ विशेषार्थ-बीजांकुरन्याय प्रसिद्ध है । बीजसे अंकुर पैदा होता है और अंकुरसे बीज पैदा होता है। इसी तरह कर्म ही कर्मका कारण है। यही बात ग्रन्थकारने उक्त तीन गाथाओंके द्वारा कही है। बांधे हुए कर्मका उदय होनेपर नये जन्मके साथ नया शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियां होती हैं, बिना इन्द्रियोंके तो शरीर होता नहीं। ये इन्द्रियाँ मर्त रूप रस, गन्ध आदिको ही ग्रहण करने में समर्थ है। जीव इन इन्द्रियोंको पाकर इनके द्वारा विषयोंको ग्रहण करता है। जो विषय उसे प्रिय लगते हैं उनसे राग करता है और जो विषय उसे प्रिय नहीं लगते, अप्रिय लगते हैं,उनसे द्वेष करता है। इस रागद्वेषसे नवीन कर्मका बन्ध करता है । नवीन कर्मका उदय आनेपर पुन: नया जन्म धारण करता है। नये जन्मके साथ नया शरीर १. एयंतं क० ख० मु.। २. इह एव अ.मु. ज०। ३. वीयंकुर णेयं अ. क. ख. ज. मु. । 'जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसुगदी ।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहिं दु विसयरगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिनिधणो सणिधणो वा ॥१२८-१३०॥-पञ्चास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy