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________________ ৩৩ -१२९ ] नयचक्र कर्तृत्वादिकालमुपदिश्य बन्धमोक्षयोगौणं मुख्यं निमित्तं चाह भोत्ता हु होइ जइया तइया सो कुणइ रायमादीहिं । एवं बंधो जीवे गाणावरणादिकम्मेहिं ॥१२८॥ मिच्छे मिच्छाभावो सम्मे सम्मो वि होइ जीवाणं । वत्थू णिमित्तमत्तं सरायपरिणामवीयरायाए ॥१२९।। जब वह जीव पूर्वबद्ध कर्मों का फल भोगता है तो रागद्वेष रूप परिणमन करता है,इस तरहसे जीवमें ज्ञानावरणादिक कर्मोंका बन्ध होता रहता है ॥१२८॥ विशेषार्थ-भावार्थ यह है कि जब जीवके पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मोंका उदय होता है, तो वह जीव स्वयं ही अपने अज्ञानभावसे मिथ्यात्व रागादि रूप परिणमन करता हुआ नवीन कर्मबन्धका कारण होता है। इसका आशय यह है कि द्रव्यकर्मका उदय होने मात्रसे जीवके कर्मबन्ध नहीं होता किन्तु जीवके रागादि रूप परिणमन करनेसे नवीन कर्मका बन्ध होता है। यदि कर्मके उदय मात्रसे बन्ध होता तो संसारका कभी अन्त होता; क्योंकि संसारी जीवोंके सर्वदा ही कर्मका उदय रहता है । इस तरह कर्तृत्व आदिका कथन करके बन्ध और मोक्ष में मुख्य और गौण निमित्तको कहते हैं जीवोंके मिथ्यात्व अवस्था में मिथ्याभाव होते हैं और सम्यक्त्व अवस्थामें सम्यक् भाव होते हैं । सराग परिणाम ओर वीतराग परिणाम में बाह्य वस्तु तो निमित्त मात्र है ।।१२९।। विशेषार्थ-कारणके दो भेद हैं-उपादान कारण और निमित्त कारण। जो वस्तु स्वयं कार्यरूप परिणत होती है उसे उपादान कारण कहते हैं और जो उसके कार्यरूप परिणतिमें सहायक हो उसे निमित्त कारण कहते हैं । जैसे जब मिट्टी स्वयं अपने में घट होनेरूप परिणामके अभिमुख होती है तो दण्ड, चक्र और कम्हारका प्रयत्न वगैरह निमित्त मात्र होता है। किन्तु दण्ड आदि निमित्तोंके होनेपर भी यदि मिट्री कंकरीली हो तो उसके अपने में स्वयं घटरूप होने के परिणामकी योग्यता न होनेसे वह घटरूप परिणत नहीं होती। इसलिए मिट्टी ही बाह्य दण्डादि निमित्तोंकी अपेक्षापूर्वक अपने अभ्यन्तर परिणामके होनेपर घटरूप होती है, दण्ड वगैरह घटरूप नहीं होते । अतः दण्ड आदि निमित्त मात्र होनेसे निमित्तकारण कहे जाते हैं और मिट्टी उपादान कारण है। आजकल निमित्तके विषय में विवाद चलता है। विवाद निमित्तके अस्तित्वको लेकर नहीं है । निमित्त नहीं है ऐसा कोई नहीं कहता। निमित्त उपादानमें कुछ करता है, इस विषयमें विवाद है। एक सिद्धान्त है कि जिस द्रव्यमें जो शक्ति नहीं है,वह शक्ति अन्यके द्वारा उत्पन्न नहीं की जा सकती। अत: निमित्तके द्वारा उपादान में कोई शक्ति तो उत्पन्न नहीं की जा सकती। अपने-अपने योग्य शक्ति तो उपादानमें रहती ही है। जब उपादान अपनी योग्यताके अनुरूप कार्यरूप परिणत होनेके अभिमुख होता है तो जो उसमें सहायक होता है उसे निमित्त कहा जाता है। अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवातिकमै उपादान और निमित्तकी इस व्यवस्थाको इसी प्रकार स्वीकार किया है-'यथा मृदः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामाभिमुख्य, दण्डचक्रपौरुषेयप्रयत्नादिनिमित्तमात्रं भवति । यतः सत्स्वपि दण्डादिनिमित्तेषु शर्करादिप्रचितो मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामनिरुत्सुकत्वात् न घटीभवति । अतो मृत्पिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डादयः, इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्वम् । - इसका अर्थ ऊपर लिख आये हैं। इसमें दण्ड,चक्र और कुम्हारके प्रयत्नको निमित्त मात्र माना है किन्तु कब? जब मिठो स्वयं अपने अन्दर में घटरूप परिणमनके अभिमुख हो। अतः उपादानका परिणमन निमित्ताधीन नहीं है.उपादानका परिणमन उपादानके अधीन है। जब उपादान स्वयं कार्याभिमुख होता है तो निमित्त निमित्त होता है। व्यवहार दृष्टिसे हमें भले ही ऐसा लगे कि उपादानका परिणमन निमित्ताधीन १. वत्थु निमित्तमित्ते आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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