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________________ ७६ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० १२६स कस्यचिन्नश्यति किं तद्भवति केन हेतुना ग्रहणमित्याह 'कारणदो इह भव्वे णासइ बंधो वियाण कस्सेव । ण हु तं अभवियसत्ते जम्हा पयडी ण मुंचेइ ॥१२६॥ खंधा जे पुव्वुत्ता हवंति कम्माणि जीवभावेण । लद्धा पुण ठिदिकालं गलंति ते णियफलं दत्ता ॥१२७॥ कर्मबन्धका सर्वथा अन्त हो जाता है,अतः उसको अपेक्षा सान्त है और अभव्य जीवके कभी बन्धका अन्त नहीं होता, अतः उसको अपेक्षा अनन्त है । यही बात आगे कहते हैं सम्यग्दर्शन आदि कारणोंके होनेपर भव्य जीवके कर्मबन्ध नष्ट हो जाता है, ऐसा जानो। किन्तु अभव्य जीवके बन्धकी परम्परा कभी भी नष्ट नहीं होती। क्योंकि वह अपने अभव्यत्वरूप स्वभावको कभी नहीं छोड़ता ॥१२६।। विशेषार्थ-जैसे उड़दोंमें स्वभावसे ही किन्हींमें पकनेको शक्ति होती है और किन्हींमें पकनेकी शक्ति नहीं होती। उन्हें आगपर पकानेपर भी ये नहीं पकते। उसी तरह जीवोंमें भी स्वभावसे ही किन्हींमें भव्यत्व स्वभाव होता है और किन्हीं में अभव्यत्व स्वभाव होता है। भव्यत्वका अर्थ है-शुद्ध होनेकी शक्ति और अभव्यत्वका अर्थ है शुद्ध न हो सकनेकी शक्ति या शुद्धि की अशक्ति । इनमें-से शुद्धिकी व्यक्ति सादि है, क्योंकि उसके अभिव्यंजक सम्यग्दर्शन आदि सादि हैं । और अभव्यत्व रूप अशुद्धिको व्यक्ति अनादि है, क्योंकि उसके अभिव्यंजक मिथ्यादर्शन आदिकी सन्तति अनादि है। इस तरह शक्ति द्रव्यकी अपेक्षा अनादि है और पर्यायकी अपेक्षा सादि है। उसकी व्यक्ति भी कथंचित् सादि है, कथंचित् अनादि है। अथवा जीवोंके अभिप्रायोंको ही शुद्धि और अशुद्धि कहते हैं । सम्यग्दर्शन आदि रूप अभिप्रायका नाम शुद्धि है । और मिथ्यादर्शन आदि रूप अभिप्रायको अशुद्धि कहते हैं। इनमेंसे सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्तिसे पहले मिथ्यादर्शन आदि सन्ततिरूप अशुद्धिकी अभिव्यक्ति कथंचित् अनादि है और सम्यग्दर्शन आदि रूप शक्तिकी अभिव्यक्ति सादि है। यहां अशुद्धताको अनादि माना है। यदि उसे सादि माना जायेगा तो उससे पहले शुद्धता माननी होगी। और पहले शुद्धता माननेपर पुनर्बन्ध असम्भव हो जायेगा । बन्ध तो अशुद्ध दशामें ही सम्भव है। अतः अशुद्धि अनादि और शुद्धि प्रयोगजन्य होनेसे सादि है। जैसे खानसे निकले स्वर्णपाषाणमें स्वर्णकी अशुद्धि अनादि है और शुद्धि सादि है । यहां प्रश्न हो सकता है कि किन्हीं जीवोंमें शुद्ध होनेको शक्ति और किन्हींमें शुद्ध न होनेकी शक्ति क्यों होती है तो इसका उत्तर यह है कि यह तो वस्तु स्वभाव है। वस्तुके स्वभावमें तर्क नहीं चलता कि आग गर्म क्यों होती है और जल शीतल क्यों होता है । आगे बतलाते हैं कि पुद्गलस्कन्ध कैसे कर्मरूप होते हैं,फिर कैसे छूटते हैं पहले जो पुद्गलस्कन्धोंका कथन किया है वे पुद्गलस्कन्ध जीवके भावोंका निमित्त पाकर स्वयं ही कर्मरूप हो जाते हैं और अपने स्थिति, कालतक ठहरने के बाद अपना फल देकर गल जाते हैं ॥१२७।। विशेषार्थ-जीवके रागद्वेष,मोहरूप भावोंका निमित्त पाकर कर्मवर्गणा रूपसे आया हआ पदगलद्रव्य स्वयं ही ज्ञानावरण आदि आठ कर्मरूप परिणमित हो जाता है और उसी समय उसमें स्थितिबन्ध भी हो जाता है । अपने स्थितिबन्ध काल तक वह कर्म आत्माके साथ बँधा रहता है। स्थितिपूर्ण होते ही वह अपना फल देकर झड़ जाता है। यह परम्परा संसारसे छुटने तक बराबर चलती रहती है। १. 'शुद्धयशुद्धो पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् । साद्यनादि तयोर्व्यक्तिः स्वभावोऽतर्कगोचरः ॥'-आप्तमीमांसा । २. 'जीवा पोग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा। काले विजुज्जमाणा सुहदुक्खं दिति भुज्जंति ॥६७॥-पञ्चास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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