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________________ -१२५ ] नयचक्र ७५ बंधो अणाइणिहणो संताणादो जिणेहिं जो भणिओ। सो चेव साइणिहणो जाण तुमं समयबंधेण ॥१२५॥ ही कर्ता है; आत्माके परिणामस्वरूप भावकर्मका नहीं। आत्मा वास्तव में अपने भावको करता है ,क्योंकि वह भाव उसका स्वधर्म है। इसलिए आत्मामें उस रूप परिणमित होनेकी शक्तिके संभव होनेसे वह भाव अवश्य ही आत्माका कार्य है। तथा वह आत्मा उस भावको स्वतंत्रतापूर्वक करनेसे अवश्य ही उसका कर्ता है और आत्माके द्वारा किया जाता हुआ वह भाव आत्माके द्वारा प्राप्य होनेसे अवश्य ही आत्माका कर्म है। इस प्रकार स्वपरिणाम आत्माका कर्म है। किन्तु आत्मा पदगलके भावोंको नहीं करता, क्योंकि वे परधर्म है। आत्मामें उस रूप होनेकी शक्ति असंभव है, इसलिए वे आत्माके कार्य नहीं है। और उनको न करता हुआ आत्मा उनका कर्ता नहीं होता। तब आत्माके द्वारा न किये जाते हुए वे उसके कर्म कैसे हो सकते हैं । अतः पुद्गल परिणाम आत्माका कर्म नहीं है। सारांश यह है कि व्यवहारसे निमित्त मात्र होने के कारण जीवभावका कर्ता कर्म है और कर्मका कर्ता जीवभाव है। किन्तु निश्चयसे न तो जीवभावका कर्ता कर्म है और न कर्म का कर्ता जीवभाव है। किन्तु वे जीवभाव और द्रव्यकर्म कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है क्योंकि निश्चयसे जीवभावका कर्ता जीव है और द्रव्यकर्मका कर्ता पुद्गल है। इसपरसे एक शंका हो सकती है वह यह-शास्त्रोंमें कहा है कि कर्म जीवको फल देते हैं और जीव कर्मोंका फल भोगता है। अब यदि जीव कर्मको करता ही नहीं है, तो जीवसे नहीं किया गया कर्म जीवको फल क्यों देगा और जीव अपने द्वारा नहीं किये गये कर्मका फल क्यों भोगेगा अतः जीवसे नहीं किया गया कर्म जीवको फल दे और जीव उस फलको भोगे, यह तो उचित नहीं है। इसका समाधान इस प्रकार है-संसार अवस्थामें यह आत्मा अपने चैतन्य स्वभावको नहीं छोड़ते हुए अनादि वन्धनके द्वारा बद्ध होनेसे अनादि मोह, राग-द्वेष रूप अशुद्ध भावरूपसे ही परिणत होता है। वह जहाँ और जब मोहरूप,रागरूप और द्वेषरूप भावोंको करता है, वहाँ उस समय उसी भावको निमित्त बनाकर पुद्गल स्वभावसे ही कर्मपनेको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जीवके किये बिना ही पुद्गल स्वयं कर्मरूपसे परिणमित होते हैं। और जीवके मोह, राग-द्वेषसे स्निग्ध होनेके कारण तथा पुद्गलकर्मोंके स्वभावसे ही स्निग्ध होनेके कारण वे परस्परमें बद्ध हो जाते हैं । जब वे परस्पर पृयक होते हैं, तब उदय पाकर खिर जानेवाले पुद्गलकर्म सुखदुःखरूप फल देते हैं। और जीव उस फलको भोगते हैं। अतः यह निश्चित हुआ कि पौद्गलिककर्म निश्चयसे अपना कर्ता है और व्यवहारसे जीवभावका कर्ता है। जीव भी निश्चयसे अपने भावका कर्ता है, व्यवहारसे कर्मका कर्ता है। किन्तु जिस प्रकार दोनों नयोंसे पौद्गलिक कर्म कर्ता है,उस प्रकार एक भी नयसे भोक्ता नहीं है ; क्योंकि चैतन्यपूर्वक अनुभूतिका नाम ही भोक्तृत्व है । पुद्गलकर्ममें उसका अभाव है। इसलिए चेतन होनेके कारण केवल जीव ही कथंचित् आत्माके सुखदुःखरूप परिणामोंका और कथंचित् इष्ट-अनिष्ट विषयोंका भोक्ता है। अर्थात् निश्चयसे सुखदुःखरूप परिणामोंका भोक्ता है और व्यवहारसे इष्ट-अनिष्ट विषयोंका भोक्ता है। आगे उक्त कर्मको कथंचित् सादि बतलाते हैं जिनेन्द्रदेवने जो कर्मबन्ध सन्तानरूपसे अनादि निधन कहा है उसे ही तुम प्रतिसमय होनेवाले बन्धकी अपेक्षा सादिसान्त जानो ॥१२५।। विशेषार्थ-जीव और कर्मका बन्ध अनादि भी है सादि भी है। सन्तान रूपसे अनादि है, क्योंकि जीव और कर्मके बन्धकी परम्परा अनादि कालसे चली आती है । पूर्व,पूर्वका कर्मबन्ध उदयमें आकर खिरता जाता है और नवीन कर्मबन्ध प्रतिसमय होता रहता है। किन्तु एक समयका बन्धा हुआ कर्म ही सदा बन्धा नहीं रहता है , इस अपेक्षा जीव और कर्मका सम्बन्ध सादि है। जैसे बीज और वृक्षको सन्तान अनादि है । अनादि कालसे बीजसे वृक्ष और वृक्षसे बीज उत्पन्न होता आता है। किन्तु हमने बीज बोया और वृक्ष लगा, इस विशेषकी अपेक्षा वह सादि है। इसी तरह कर्मबन्ध सान्त भी है और अनन्त भी है। भव्य जीवके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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