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________________ ७४ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० १२३बौद्धसांख्यसदाशिवं प्रति भोक्तृत्वाधाह देहजुदो सो भोत्ता भोत्ता सो चेव होई इह कत्ता। कत्ता पुण कम्मजुदो जीओ संसारिओ भणिओ ॥१२३॥ उक्तस्य कर्मणो नयसंबन्धात्कथंचित्सादित्वमाह कम्मं दुविहवियप्पं भावसहावं च दव्वसम्भावं । भावे सो णिच्छयदो' कत्ता ववहारदो दवे ॥१२४॥ बौद्ध, सांख्य और सदाशिववादियोंके प्रति जीवके भोक्तृत्व आदिका कथन करते हैं जो जीव शरीरसे युक्त है वह भोक्ता है और जो भोक्ता है वही कर्ता है। तथा कर्मोंसे युक्त संसारी जीवको कर्ता कहा है ॥१२३॥ कर्मके दो भेद हैं-भावकर्म और द्रव्यकर्म । निश्चयनयसे जीव भावकर्मका कर्ता है और व्यवहारसे द्रव्यकर्मका कर्ता है ॥१२४॥ विशेषार्थ-बौद्ध क्षणिकवादी है। उसके मतसे जो कुछ है वह सब क्षणिक है,एक क्षणमें उत्पन्न होता है और दूसरे क्षणमें एकदम नष्ट हो जाता है। अतः बौद्धमतमें जो कर्ता है वही भोक्ता नहीं है क्योंकि जो कर्ता है वह तो दूसरे क्षणमें नष्ट हो जाता है। उसके स्थानमें जो उत्पन्न होता है वही भोक्ता है, अतः कर्ता कोई अन्य है और भोक्ता कोई अन्य है। सांख्यमतमें प्रकृति ( जड़ तत्त्व ) कर्ता है और पुरुष भोक्ता है । अतः यहाँ भी कर्ता दूसरा है और भोक्ता दूसरा है । सदाशिववादी तो ईश्वरको सदा मुक्त मानते हैं । उनके यहाँ जीव कर्म करने में तो स्वतंत्र है, किन्तु उसका फल भोगने में परतंत्र है। ईश्वर जैसा उसे उसके कर्मोंका फल देता है वैसा उसे भोगना पड़ता है। किन्तु जैन धर्ममें जो कर्ता है वही भोक्ता है क्योंकि नित्य है उसकी पर्याय बदलतो है.किन्तु जीव तो वही रहता है। अब प्रश्न यह होता है कि जीव किसका कर्ता भोक्ता है। तो उत्तर होता है- कर्मोंका कर्ता भोक्ता है। कर्मके दो प्रकार हैं- द्रव्यकर्म और भावकर्म । इनमें से जीव किसका कर्ता भोक्ता है। इसका उत्तर नयदृष्टिसे दिया जाता है। यह पहले लिख आये हैं कि आत्माका परिणाम ही द्रव्यकर्मोंके बन्धने में हेतु है और उस प्रकारके परिणामका हेतु द्रव्यकर्मका उदय है, क्योंकि द्रव्यकर्मके उदयके बिना उस प्रकारके अशुद्ध परिणाम नहीं होते । किन्तु ऐसा माननेपर अन्योन्याश्रय नामक दोष नहीं आता; क्योंकि नवीन द्रव्यकर्मका कारण जो अशुद्ध परिणाम है, उस अशुद्ध आत्मपरिणामका कारण वही नवीन द्रव्यकर्म नहीं है, किन्तु पहलेका पुराना द्रव्यकर्म है। इस प्रकार चूंकि उस अशुद्ध आत्मपरिणामका कार्य नवीन द्रव्यकर्म है और कारण पुराना द्रव्यकर्म है,इसलिए वह परिणाम उपचारसे द्रव्यकर्म हो है और आत्मा अपने परिणामका कर्ता होनेसे उपचारसे द्रव्यकर्मका भी कर्ता है । आत्माका परिणाम वास्तवमें स्वयं आत्मा ही है, क्योंकि परिणामी परिणामके स्वरूपका कर्ता होनेसे परिणामसे अभिन्न होता है । और उस आत्माका वह जो परिणाम है वह जीवमयी क्रिया ही है। क्योंकि सभी द्रव्योंकी परिणामरूप क्रिया उस द्रव्यरूप ही स्वीकार की गयी है । उस जीवमयी क्रियाको करने में आत्मा स्वतंत्र होनेसे उसका कर्ता होता है और उस कर्ताके द्वारा प्राप्य होनेसे जीवमयी क्रिया उसका कर्म है। इसलिए परमार्थसे आत्मा अपने परिणामस्वरूप भावकर्मका ही कर्ता है:पुदगल परिणास्वरूप द्रव्यकर्मका कर्ता नहीं है। ऐसी स्थितिमें यहाँ प्रश्न होता है कि तब द्रव्यकर्मका कर्ता कौन है ? तो पुद्गलका परिणाम वास्तवमें स्वयं पुद्गल ही है क्योंकि परिणामी परिणामके स्वरूपका कर्ता होनेसे परिणामसे अभिन्न होता है। तथा उस पुद्गलका जो परिणाम है वह उसकी पुद्गलमयी क्रिया ही है। क्योंकि सब द्रव्योंकी परिणामरूप क्रिया उस द्रव्यरूप ही स्वीकार की गयी है। उस पुद्गलमयी क्रियाको करने में स्वतंत्र होनेसे पुद्गल उसका कर्ता है और उस कर्ताके द्वारा प्राप्त होनेसे वह पुद्गलमयी क्रिया उसका कर्म है। इसलिए परमार्थसे पुद्गल अपने परिणामस्वरूप उस द्रव्यकर्मका १. 'पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥८॥ -द्रव्यसंग्रह। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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