SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१२२] नयचक्र ७३ देहा य हुति दुविहा थावरतसभेददो यविण्णेया। थावर पंचपयारा बादरसुहुमा वि चदु तसा तह य॥१२२॥ विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवलिसमुद्घात । तीव्र पीड़ा होनेपर मूल शरीरको न छोड़ते हुए आत्माके प्रदेशोंके शरीरसे बाहर निकलनेको वेदनासमुद्घात कहते हैं । तीव्र क्रोधादिक कषायके उदयसे मूल शरीरको न छोड़कर दूसरेका घात करनेके लिए आत्माके प्रदेशोंके बाहर जानेको कषायसमुद्घात कहते है। मूलशरीरको न छोड़कर कुछ भी विक्रिया करनेके लिए आत्माके प्रदेशोंके शरीरसे बाहर जानेको विक्रियासमुद्घात कहते हैं। मरणकाल आनेपर मूल शरीरको न त्यागकर जिस किसी स्थानकी आयु बाँधी हो, उस स्थानको छने के लिए आत्माके प्रदेशोंके बाहर जानेको मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं । अपने मनको अप्रिय,किसी कारणको देखकर किसी महातपस्वी मुनिके क्रुद्ध होनेपर उनके बायें स्कन्धसे एक पुतला निकलता है, वह सिन्दूरके समान लाल होता है तथा बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा होता है। मुनिके बायें स्कन्धसे निकलकर जिसपर मुनिको क्रोध होता है उसकी बायीं ओरसे प्रदक्षिणा करते हुए जला डालता है और लौटकर मुनिके साथ स्वयं भी भस्म हो जाता है। जैसे द्वीपायन मुनिके क्रोधसे द्वारिका भस्म हो गयी थी। यह अशुभ तैजस समधात है। तथा जगतको व्याधि, दुर्भिक्ष आदिसे पीडित देखकर परमतपस्वी मुनिके चित्तमें करुणाभाव उत्पन्न होनेपर उनके दक्षिण स्कन्धसे जो शुभ आकारवाला पुतला निकलकर व्याधिदुर्भिक्ष आदिसे पीड़ित प्रदेशकी दक्षिणकी ओरसे प्रदक्षिणा देते हुए व्याधि-दुर्भिक्ष आदिको दूर करके पुनः मुनिके.शरीरमें प्रवेश कर जाता है वह शभतैजस समदधात है। ऋद्धिसम्पन्न मनिको स्वाध्याय करते शंका उत्पन्न होनेपर उनके मूल शरीरको न छोड़कर मस्तकसे शुद्धस्फटिकके समान रंगवाला एक हस्तप्रमाण पुतला निकलकर केवलज्ञानोके समीप जाता है। उनके दर्शनसे शंकाका समाधान करके पुनः अन्तर्मुहूर्तमें लौटकर मुनिके शरीरमें प्रवेश कर जाता है, यह आहारकसमुद्घात है। जब केवलीकी आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है और नाम, गोत्र तथा वेदनीय कर्मको स्थिति अधिक होती है,तो उन कर्मोको भी स्थिति आयुकर्मके समान करनेके लिए केवली तमघात करते हैं। प्रथम समयमें उनकी आत्माके प्रदेश दण्डाकार होते हैं, दूसरे समयमें कपाटके आकार होते हैं, तीसरे समयमें प्रतररूप तिकोने हो जाते हैं और चौथे समयमें समस्त लोकमें फैल जाते हैं। पांचवें समयमें प्रतररूप, छठे समयमें कपाटरूप, सातवें समयमें दण्डरूप तथा आठवें समयमें शरीरमें प्रविष्ट हो जाते हैं, यह केवलिसमुद्घात है। इन समुद्घातोंको छोड़कर जीव अपने शरीरके पाकारवाला होता है। किन्तु निश्चयनयसे तो वह असंख्यात प्रदेशवाला है। चाहे वह छोटे शरीरमें रहे या बड़ेमें, उसके प्रदेशोंकी संख्यामें हानि-वृद्धि नहीं होती। हाँ, आकारमें हानि-वृद्धि अवश्य होती है। आगे प्रकरणवश शरीरके भेद कहते हैं स्थावर और त्रसके भेदसे शरीर दो प्रकारके होते हैं । स्थावर पांच प्रकारके होते हैं। तथा वे बादर भी होते हैं और सूक्ष्म भी होते हैं। तथा त्रस दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचे. न्द्रियके भेदसे चार प्रकारके होते हैं ॥१२२।। विशेषार्थ-संसारी जीवोंके छह काय होते हैं । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकायको स्थावरकाय कहते हैं। इनके केवल एक ही स्पर्शन ही इन्द्रिय होती है। दो इन्द्रियवाले, तीन इन्द्रियवाले, चार इन्द्रियवाले और पांच इन्द्रियवाले जीवोंको त्रसकाय कहते हैं। स्थावरकायवाले जीव बादर भी होते हैं और सूक्ष्म भी होते हैं। किन्तु सकायिक जीव बादर ही होते हैं। जिनका शरीर स्थल होनेके कारण बिना आधारके नहीं रहता तथा जो दूसरोंको रोकते और दूसरोंसे रोके जाते हैं, वे बादर होते हैं। और जो इसके विपरीत होते हैं, वे सूक्ष्म जीव कहे जाते हैं । यह सब भेद शरीरकी अपेक्षा जानना। १. य ते णेया क० ख० ज०। 'पुढविजलतेउवाऊ वणप्फदी विविह थावरेइंदी। विगतिगचदुपंचक्खा तसजोवा होंति संखादी ॥११॥'-द्रव्यसंग्रह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy