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________________ • -१३४ ] नयचक्र धर्माधर्मयोः परमार्थव्यवहारकालयोश्च स्वरूपं प्रयोजनं चाचष्टे - padded 3 लोपमाणममुत्तं अचेयणं गमणलक्षणं धम्मं । तप्प डिरूवमधम्मं ठाणे सहयारिणं णेयं ॥१३३॥ लोयालोयविभेयं गमणं ठाणं च जाण हेदूहि । जइ गहु ताणं हेऊ किह लोयालोयववहारं ॥१३४॥ मिलता है, उसमें इन्द्रियाँ होती हैं । इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण करता है, उससे रागद्वेष करता है, रागद्वेषसे पुनः नवीन कर्मबन्ध होता है। इस तरह जैसे बीजांकुरकी सन्तान अनादि कालसे चली आती है, वैसे ही जीवके कर्मबन्धको सन्तान भी अनादि कालसे चली आती है । इसको समाप्त करनेका एक ही उपाय है; जैसे बीजको जलाकर राख कर देनेपर अनादि बीजांकुर सन्तान नष्ट हो जाती है, वैसे ही कर्मरूपी बीजको भी यदि सर्वथा नष्ट कर डाला जाये तो उससे नया जन्म लेना नहीं पड़ेगा । नया जन्म धारण न करनेसे नया शरीर नहीं होगा । नया शरीर न होनेसे उसमें इन्द्रियाँ, उनसे विषय ग्रहण, विषयग्रहणसे होनेवाला रागद्वेष ये सब समाप्त हो जायेंगे। इनके समाप्त होनेसे नया कर्मबन्ध ही नहीं होगा । इसीका नाम मुक्ति है । ७९ धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और परमार्थकाल तथा व्यवहारकालका स्वरूप और प्रयोजन कहते हैं धर्मद्रव्य लोकाकाशके बराबर प्रमाणवाला है, अमूर्तिक है, अचेतन है, जीव और पुद्गलों के गमनमें सहायक होना उसका लक्षण है । उसीके समान अधर्मद्रव्य है, किन्तु वह चलते हुओंके ठहरने में सहायक है ||१३३ || विशेषार्थ - धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ऐसे द्रव्य हैं जिन्हें जैनधर्ममें ही इस रूपमें माना गया है । ये दोनों द्रव्य आकाशकी तरह ही अमूर्तिक और अचेतन । किन्तु आकाशकी तरह सर्वव्यापक नहीं हैं; केवल लोकाकाशमें ही व्यापक हैं, उससे बाहर नहीं हैं । इनका काम है-जीव और पुद्गलोंके गमनमें और ठहरनेमें मात्र सहायक होना । चलने और चलते-चलते ठहरने की शक्ति तो जीव और पुद्गलों में ही है । ये तो केवल निमित्त मात्र हैं । जैसे सड़क हमें चलनेमें सहायक होती हैं, वह हमें चलाती नहीं है। हम यदि चलना न चाहें तो वह चलनेकी प्रेरणा नहीं करती । चलना चाहें तो सहायक हो जाती है। इसी तरह ग्रीष्मऋतुमें सड़क के किनारे खड़े हुए वृक्षोंकी छाया पथिकों के ठहरनेमें सहायक होती है । वह जबरदस्ती किसीको ठहराती नहीं है । जो ठहरना चाहें उनको निमित्त हो जाती है । इसी तरह लोकाकाश में सर्वत्र जीव और पुद्गलोंके चलने और ठहरनेमें सहायक मात्र धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य हैं | आगे इन दोनों द्रव्योंका प्रयोजन बतलाते हैं लोक और अलोकका भेद तथा गमन और ठहरना, ये सब बिना कारणोंके नहीं हो सकते । यदि इनका कोई कारण न होता तो लोक अलोक व्यवहार कैसे होता ? || १३४॥ विशेषार्थ - प्रत्येक कार्यका कोई कारण अवश्य होता है । गमन और गमनपूर्वक स्थिति भी कार्य है, अत: उनका कोई कारण होना चाहिए । यों तो इन दोनों क्रियाओंके उपादान कारण तो चलनेवाले और चलते हुए ठहरनेवाले जीव और पुद्गल ही हैं, तथापि कोई साधारण निमित्त भी होना चाहिए। उसके बिना कोई कार्य होता नहीं । अतः उसमें निमित्त धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य हैं इस प्रयोजनके सिवाय इन दोनों द्रव्यों का एक प्रयोजन और भी है । जैनधर्म में अखण्ड आकाश के दो विभाग माने गये हैं - लोकाकाश Jain Education International १. व्याचष्टे । २. 'धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं । लोगोगाढं पुढं पिहुलमसंखादियपदेसं ॥ ८३ ॥ उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए । तह जीव पोग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाहि ॥८५॥ जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दब्बमधम्मखं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवी व ॥ ८६ ॥ - पञ्चास्ति० । ३. 'जादो अलोग लोगो जेसि सब्भावदो य गमणठिदी । दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ॥ ८७ ।। पञ्चास्ति० । ४. च ताण ज० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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