________________
६२
द्रव्य स्वभावप्रकाशक
जीवस्य भेदमुद्दिश्य सूत्राणि सूचयति -
जीवा 'तेवि दुविहा मुक्का संसारिणो य बोहव्वा । मुक्का एयपयारा विविहा संसारिणो नेया ॥१०४॥
प्राप्त होते हैं, तभी स्कन्ध बनता है । जैसे दो गुणवाले परमाणुका चार गुणवाले परमाणुके साथ बन्ध सम्भव है | तीन गुणवालेका पाँच गुणवाले के साथ बन्ध सम्भव है । इस तरह एकसे दूसरे में दो गुण अधिक होनेपर ही स्निग्धता और रूक्षता गुणके कारण दोनोंका बन्ध होता है और इस तरह संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओं का स्कन्ध बनता है। अब प्रश्न होता है कि जीवमें तो स्निग्ध-रूक्ष गुण नहीं है, तब उसके साथ कर्मोका बन्ध कैसे होता है ? इसका समाधान इस प्रकार है-
[ गा० १०४
यह लोक सूक्ष्म और बादर पुद्गल स्कन्धोंसे सर्वत्र भरा हुआ है । उनमें से जो स्कन्ध अतिसूक्ष्म या अतिस्थूल होते हैं वे तो कर्मरूप परिणत होनेके अयोग्य होते हैं । किन्तु जो अतिसूक्ष्म अथवा अतिस्थूल नहीं होते वे कर्मरूप परिणत होनेके योग्य होते हैं । जीव उपयोगमय है, वह विविध विषयोंको प्राप्त करके मोह, राग या द्वेष करता है । यद्यपि मोह, राग और द्वेष परनिमित्तक हैं, फिर भी आत्मा उनसे उपरक्त है। अतः जीवकी राग-द्वेष रूप परिणतिवश कर्म- पुद्गल स्वयं ही जीवके साथ बद्ध हो जाते हैं । यद्यपि आत्माका कर्मपुद्गलों के साथ वास्तवमें कोई सम्बन्ध नहीं है, वे आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि आत्मा राग-द्वेष आदि भाव करता है और उन भावों में कर्मपुद्गल निमित्त होते हैं । यह रागादिविकार ही स्निग्धता और रूक्षताका स्थानापन्न है, उसीको भावबन्ध कहते हैं । उसीसे पौद्गलिक कर्म बँधता है। इस प्रकार द्रव्यबन्धका निमित्त भावबन्ध है । आशय यह है कि स्निग्धता और रूक्षतारूप स्पर्श विशेषोंके द्वारा जो कर्म परमाणुओं का एकत्व परिणाम होता है वह तो केवल पुद्गलबन्ध है और जो जीवका अपने औपाधिक मोहरागद्वेषरूप पर्यायों के साथ एकत्व परिणाम होता है वह केवल जीवबन्ध है । तथा जीव और कर्मपुद्गलोंके परस्पर परिणाम के निमित्त मात्रसे जो उनका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होता है वह पुद्गल जीवात्मक उभयबन्ध है । सारांश यह है कि आत्मा के प्रदेशों में कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा के अवलम्बनसे जैसा परिस्पन्द होता है, तदनुसार ही कर्मपुद्गल स्वयं ही परिस्पन्दवाले होते हुए आत्मामें प्रवेश करते हैं और यदि उसके मोह, राग, द्वेषरूप भाव होते हैं तो बंध जाते हैं । इस तरह द्रव्यबन्धका हेतु भावबन्ध है । अतः राग-परिणत जीव ही नवीन कर्मसे बँधता है और वैराग्य-परिणत जीव मुक्त होता है ।
Jain Education International
अब जीवके भेद कहते हैं
जीव भी दो प्रकार के हैं - मुक्त जीव और संसारी जीव । मुक्त जीव एक ही प्रकार के होते हैं और संसारी जीव अनेक प्रकारके जानना चाहिए ॥ १०४ ॥
विशेषार्थ — शुद्धता में कोई भेद नहीं होता । अतः पूर्ण शुद्ध मुक्त जीवोंमें
परस्परमें कोई भेद नहीं
1
है | तीर्थंकर होकर जो मुक्त होते हैं और जो सामान्य केवली होकर मुक्त होते हैं, मुक्तावस्था में उनमें भी कोई अन्तर नहीं रहता । तीर्थकर और अतीर्थंकरका अन्तर तो जब तक संसार है तभी तक है, क्योंकि तीर्थंकर नामकर्मका उदय वहीं होता है। मुक्त होनेपर तो सभी कर्मोंके साथ उसका भी नाश हो जाता है | अतः मुक्तात्माके भेद-प्रभेद नहीं हैं । सभी नित्य निरंजन निर्विकार स्वरूप हैं । यदि उनमें कोई भेद हैं, तो क्षेत्रकृत भेद है— कोई किसी क्षेत्रसे मुक्त हुआ है और कोई किसी क्षेत्रसे मुक्त हुआ है, कालकृत भेद है— कोई किसी कालमें मुक्त हुआ है, कोई किसी कालमें मुक्त हुआ है। शरीरकी अवगाहनाकृत भेद है— कोई किसी अवगाहनासे मुक्त हुआ है, कोई किसी अवगाहनासे मुक्त हुआ है; क्योंकि मुक्त जीव जिस शरीरसे मुक्त होता है उसका आकार उस शरीरसे किंचित्न्यून ही रहता है, घटता-बढ़ता नहीं है । इस तरह मुक्त जीवों में आत्मगुणकृत कोई भेद नहीं है । जैसे सभी अग्नियाँ उष्ण होती हैं, अतः उष्णगुणकृत कोई भेद उनमें नहीं होता । किन्तु कोई आग तृणकी होती है, कोई आग लकड़ीसे होती है, कोई आग पत्तोंसे होती है, अतः उसे
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org