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________________ -१०७] नयचक्र 'पहु जीवत्तं चेयण उवयोग अमुत्त मुत्तदेहसमं । कत्ता हु होइ भुत्ता तहेव कम्मेण संजुत्तो॥१०५॥ प्रभोयुक्तिसमर्थनार्थ प्रभुत्वमाह गाथाद्वयेनेति णट्टकम्मसुद्धा असरीराणंतसॉक्खणाणड्ढा । परमपहुत्त पत्ता जे ते सिद्धा हु खलु मुक्का ॥१०६॥ घाईकम्मखयादो केवलणाणेण विदिदपरमट्ठो। उवदिट्ठसयलतच्चो लद्धसहावो पहू होई ॥१०७॥ तृणाग्नि, काष्ठाग्नि या पत्राग्नि कहते हैं। इनमें अन्तर तण, काष्ठ या पत्रका है: अग्नि तो अग्नि ही है। इस दृष्टान्तसे ऐसा आशय नहीं ले लेना कि तीनों प्रकारकी अग्नियोंकी उष्णतामें जैसे अन्तर होता है, वैसे सिद्धोंके ज्ञानादि गुणोंमें भी अन्तर है। सबके ज्ञानादिगुण समान हैं। इस तरह सिद्धोंके भेद नहीं है, किन्तु संसारी जीवोंके तो अनेक भेद हैं-त्रस, स्थावर आदि, देव मनुष्य तिथंच नारको आदि, एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय आदि । इन भेदोंको ग्रन्थकार आगे स्वयं कहेंगे । आगे जीवका स्वरूप कहते हैं प्रभु है, जीव है, चेतन है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, मूर्तिक शरीर प्रमाण है, कर्ता है, भोक्ता है और कमसे संयुक्त है ।।१०५।।. विशेषार्थ-संसारी आत्माका स्वरूप इस गाथाके द्वारा बतलाया है। निश्चयसे भावकर्मोके और व्यवहारसे द्रव्यकों के आस्रव, बन्ध, संवर और निर्जरा तथा मोक्षके करनेमें यह आत्मा स्वयं समर्थ है, अत: प्रभु है। निश्चयसे भाव प्राणोंको और व्यवहारसे द्रव्य प्राणोंको धारण करता है, इसलिए जीव है । निश्चयसे चित्स्वरूप और व्यवहारसे चित्शक्तिसे युक्त होनेके कारण चेतन है। निश्चयसे अभिन्न और व्यवहारसे भिन्न चैतन्य परिणामस्वरूप उपयोगसे. युक्त होनेसे उपयोगमय है। व्यवहारसे कर्मोंके साथ एकत्व परिणामके कारण मर्त होनेपर भी निश्चयसे अरूपी स्वभाववाला होने के कारण अमर्त है। निश्चयसे आत्मा लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है, किन्तु विशिष्ट अवगाह परिणामकी शक्तिसे युक्त होनेसे नामकर्मसे रचे जानेवाले छोटे या बड़े शरीरमें रहता हुआ व्यवहारसे शरीर प्रमाण है। निश्चयसे पौद्गलिक कर्मके निमित्तसे होनेवाले आत्मपरिणामोंका कर्ता है और व्यवहारसे आत्मपरिणामके निमित्तसे होनेवाले पौद्गलिक कर्मोंका कर्ता है । निश्चयसे शुभ-अशुभ कर्मोके निमित्तसे होनेवाले सुख दुःखरूप परिणामोंका भोक्ता है और व्यवहारसे शुभ अशुभ कर्मसे प्राप्त इष्ट-अनिष्ट विषयोंका भोक्ता है। निश्चयसे निमित्तभूत पौद्गलिक कर्मों के अनुरूप होनेवाले भावकर्मरूप आत्मपरिणामोंके साथ संयुक्त होनेसे कर्मसंयुक्त है और व्यवहारसे निमित्तभूत आत्मपरिणामों के अनुरूप होनेवाले पोद्गलिक द्रव्यकर्मोसे संयुक्त है। आगे दो गाथाओंसे प्रभुत्व गुणका युक्तिपूर्वक समर्थन करते हैं आठों कर्मों को नष्ट कर देनेसे जो शुद्ध हैं, शरीरसे रहित हैं, अनन्त सुख और अनन्त ज्ञानसे परिपूर्ण हैं, परम प्रभुत्वको प्राप्त वे सिद्ध मुक्तजीव हैं। घातिकर्मोके क्षयसे प्रकट हुए केवलज्ञानके द्वारा जिनने परमार्थको जाना है, और समस्त तत्त्वोंका उपदेश दिया है, आत्मस्वभावको प्राप्त वह प्रनु होता है ॥१०६-१०७॥ विशेषार्थ-प्रभुका अर्थ होता है-स्वामी । यह जीव स्वयं अपना स्वामी है । स्वयं ही अपने कार्यों के द्वारा कर्मसे बद्ध होता है और स्वयं ही अपने कार्योंके द्वारा बद्ध कर्मबन्धसे मुक्त होता है। इसका बन्धन १. 'जीवोत्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पह कत्ता। भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो' ॥२७॥ -पञ्चास्ति । २. घायचउक्कखवादो क० ख० । घाइचउक्कखयादो ज०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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