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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० १८० तस्यैव अर्थसमर्थनार्थमाह (श्लोकद्वयं) स्वभावतो यथा लोके चन्द्राद्यिन्तरिक्षकाः । तथा लोकस्य संस्थानमाकाशान्ते जिनोदितम् ॥१॥ ऊर्ध्वाधो गमनं नास्ति तिर्यग्रूपे पुनस्तथा । अगुरुलध्वन्तर्भावाद्गमनागमनं नहि ।।२।। तस्यैव स्वरूप प्रयोजनं च वदति भुत्तो एयपदेसी कारणरूवोणु कज्जरूवो वा। तं खलु पाँग्गलदव्वं खंधा ववहारदो भणिया ॥१०॥ वण्ण-रस-गंध-ऍक्कं फासा दो जस्स संति समयम्मि । तं इह मुत्तं भणियं अवरघरं कारणं जं च ॥१०॥ *दव्वाणं च पएसे जो हु विहत्तोह कालसंखाणं । णियगुणपरिणामादो कत्ता सो चेव खंधाणं ॥१०२॥ आगे इस कथनके समर्थन में ग्रन्थकार दो श्लोक उद्धृत करते हैं--- जैसे लोकमें चन्द्र, सूर्य, तारे आदि स्वभावसे ही बने हैं, वैसे ही आकाशके मध्य में लोकका आकार, स्वभावसे ही बना है, ऐसा जिनदेवने कहा है। न वह ऊपर जाता है, न नीचे जाता है और न तिर्यग् रूपसे । अगुरुलघु गुणके कारण उसका गमनागमन नहीं होता ।।। आगे उस पुद्गल द्रव्यका स्वरूप और प्रयोजन कहते है परमाणु मूर्तिक है, एकप्रदेशी है, कारणरूप भी है और कार्यरूप भी है। निश्चयसे वही पुद्गलद्रव्य है और व्यवहार नयसे स्कन्धों को भी पुद्गलद्रव्य कहा है ।।१००॥ विशेषार्थ-पुद्गलद्रव्यके दो भेद बतलाये हैं~-अणु और स्कन्ध । अणु या परमाणु नित्य और अविभागी होता है । इसीसे वह केवल एकप्रदेशी होता है । उसके दो, तीन आदि प्रदेश नहीं होते, न उसमें आदि, मध्य और अन्त व्यवहार होता है । वह स्वयं ही आदि, स्वयं ही मध्य और स्वयं ही अन्तरूप है। उसमें एक रस, एक गन्ध, एक रूप और दो स्पर्श--शीत या उष्ण, स्निग्ध या रूक्ष होते है, इन्द्रियके द्वारा उसका ज्ञान नहीं हो सकता। उसका यह रूप स्वाभाविक है, दूसरोंके मेलसे नहीं बना है। इसीसे वास्तवमें तो वही शुद्ध पुद्गल द्रव्य कहलाता है। और दो, तोन आदि संख्यात, असंख्यात या अनन्त परमाणुओंके मेलसे उत्पन्न हुई पर्यायको स्कन्ध कहते है। स्कन्धरूप पर्याय अशुद्ध है, स्वाभाविक नहीं है, वैभाविक है, अतः उसे व्यवहारसे पुद्गलद्रव्य कहा जाता है। चूंकि परमाणुओंके बन्धसे स्कन्ध पर्याय बनती है, अतः परमाणु कारण है। परमाणुओंका संयोग हुए बिना स्कन्ध पर्याय सम्भव नहीं है। और स्कन्ध टूटकर पुनः परमाणुरूप हो जाते हैं, इसलिए परमाणु कार्य भी है। किन्तु घटादिकी तरह परमाणु किसीके मेलसे नहीं बनता । अतः जिस प्रकार घट कार्यरूप है,उस प्रकार परमाणु कार्यरूप नहीं है। किन्तु स्कन्धोंके टूटनेसे परमाणु पुन: अपने स्वाभाविक रूपमें आता है इसलिए उसे कार्य कहा है। जिसमें एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श गुण होते हैं उसे आगममें मूर्तिक कहा है। वह मतिक द्रव्य आगे-पीछे या दर निकट व्यवहारमें कारण है ।।१०।। वह द्रव्योंके प्रदेशोंका और कालकी संख्याका विभाग करता है। वही अपने गुणोंके परिणमनसे स्कन्धोंका कर्ता है ।।१०२॥ १. रू वो वि आ० । 'बादरसुहमगदाणं खंधाणं पुग्गलोत्ति ववहारो।'..."सव्वेसि खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाण । सो सस्सदो अस हो एक्को अविभागी मुत्तिभवो ॥७७॥'--पञ्चास्ति०। २. 'एयरसवण्णगंधं दो फासं सहकारणमसदं । खंधंतरिदं दव्वं परमाणु तं वियाणाहि ॥८१॥ पञ्चास्ति। ३. "णिच्चो णाणवकासो ण सावकासो पदेसदो भेत्ता । खंधाणं पि य कत्ता पविहत्ता कालसंखाणं ॥८॥--पञ्चास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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