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________________ -९९] नयचक्र लोकालोकयोर्लक्षणमाह जीवेहि पुग्गलेहि य धम्माधम्मेहि जं च काहि । उद्धद्धं तं लोगं सेसमलोगं हवे गंत. ॥९८॥ अनुषङ्गिणः स्वरूपं निरूप्य पुद्गलसंबन्धमाह 'लोगमणाइअणिहणं अकिट्रिम तिविहभेयसंठाणं । खंधादो तं भणियं पोग्गलदव्वाण सव्वदरसीहि ॥१९॥ है। किन्तु व्यवहारनयसे धर्मादि द्रव्यों का आधार आकाशको कहा जाता है ; क्योंकि धर्मादिद्रव्य लोकाकाशसे बाहर नहीं पाये जाते हैं। आगे लोक और अलोकका लक्षण कहते हैं आकाशका जो भाग जीवोंसे, पुद्गलोंसे, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और कालद्रव्यसे व्याप्त है,वह लोक है और शेष अनन्त आकाश अलोक है ।।२८।। विशेषार्थ-आशय यह है कि आकाश तो सर्वत्र है,वह सर्व व्यापक एक अखण्डद्रव्य है। उसके जितने भागमें धर्म आदि छहों द्रव्य पाये जाते हैं, उतने भागको लोकाकाश कहते हैं और उसके बाहर सब ओर जो अनन्त आकाश है उसे अलोकाकाश कहते है। इस तरह आकाशके दो विभाग हो गये हैं। इस विभागके कारण हैं-धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य । धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल द्रव्योंको गतिमें सहायक हैं और अधर्मद्रव्य उनको स्थितिमें सहायक हैं। ये दोनों द्रव्य लोकाकाशमें ही व्याप्त हैं । अतः जीव और पुद्गलों की गति लोकाकाशमें ही सम्भव है,उसके बाहर वे नहीं जाते। यदि ये दोनों द्रव्य न होते तो या तो जीव और पुद्गलोंमें गति और स्थिति ही न होती और यदि होती तो ये द्रव्य समस्त आकाश में विचरण करते और इस तरह लोक-अलोकका विभाग नहीं बनता। किन्तु जब लोक है तो अलोक होना ही चाहिए। क्योंकि 'न' से युक्त अखण्ड पद सार्थक होता है जैसे अब्राह्मण कहनेसे ब्राह्मणसे इतर क्षत्रिय आदिका बोध होता है। अनुषंगप्राप्त लोक-स्वरूप बतलाकर पुद्गलके साथ उसका सम्बन्ध कहते है-- लोक अनादिनिधन है, अकृत्रिम है, पुद्गलद्रव्योंके स्कन्धसे तीन भेद रूप आकारवाला हैऐसा सर्वज्ञ,सर्वदर्शी जिनेन्द्रने कहा है ॥९९।। विशेषार्थ--लोक किसीके द्वारा नहीं रचा गया है, वह अकृत्रिम है और इसीलिए अनादि-अनन्त है-न उसकी आदि है और न उसका अन्त है । उसके तीन भेद है-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्वलोक । लोकके मध्यमें चित्रा पृथिवीके ऊपर सुमेरुपर्वत स्थित है। एक हजार योजन पृथिवी के भीतर और ९९ हजार योजन पृथिवीके ऊपर इस तरह एक लाख योजन ऊँचा है। उसके नीचेके भागको अधोलोक कहते हैं, उसके तलसे लेकर चूलिका तकके भागको मध्यलोक कहते हैं और ऊपरके भागको ऊर्ध्वलोक कहते हैं। अधोलोकका आकार वेत्रासन या खड़े हए अर्धमदंगके समान है। मध्यलोकका आकार गोल झांझके समान है और ऊर्ध्व लोक का आकार खड़े हुए मृदंग के समान है। एक मनुष्य के दोनों पैर फैला कर और अपने दोनों हाथ कटिप्रदेशपर रखकर खड़ा होनेसे जैसा आकार होता है, वैसा ही लोकका आकार है। लोकके इन तीन भेदरूप आकारका सम्बन्ध पुद्गलद्रव्योंके स्कन्धोंसे है। सुमेरु पर्वत, उसके नीचेको सात पथिवियाँ. ऊपर स्वर्गों के विमान, सिद्ध शिला, ये सब एक लोकव्यापी महास्कन्धके ही परिणाम हैं। इस लोकको चारों ओरसे वेष्टित किये हए तीन वातवलय भी पुद्गल स्कन्धरूप ही हैं। अत: लोककी आकार-रचनामें पदगलद्रव्यका विशेष उपयोग हुआ है । किन्तु यह सब स्वाभाविक है, किसीके द्वारा किया गया नहीं है । १. 'लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइणिणो सहावणिव्वत्तो। जीवाजीवेहिं फुडो सव्वागासावयवो णिच्चो ॥४॥ धम्माधम्मागासा गदिरागदि जीवपोग्गलाणं च । जावत्तावल्लोगो आयासमदो परमणतं ॥५॥ उब्भियदलेक्क मरवद्धयसंचयसण्णिहो हवे लोगो । अधुदओ मुरवसमो चोद्दस रज्जुदओ सव्वो ॥६॥-त्रिलोकसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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