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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
इदानीं विशेषगुणानां स्वामित्वसमर्थनार्थमाह । तत्र गाथाभ्यामधिकारपातनिका --
मत्ता गुणपज्जयदव्वाणं लक्खणं संखा । णयविसयदंसणत्थे ते चैव विसेसदो भणिमो ॥९५॥ गयणं पोग्गल जीवा धम्माधम्मं खु कालदखं च । भणिव्वा अणुकमसो जहट्टिया गयणगढभेसु ॥९६॥ गगनद्रव्यस्य तावद्विशेषलक्षणं भेदं चाह --
चेयण रहियममुत्तं अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं । लोयालोयविभेयं तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठ ॥९७॥
अब विशेष गुणों के स्वामित्वका समर्थन करते हुए, प्रथम दो गाथाओंके द्वारा अधिकारका अवतरण करते हैं-
[ गा० ९५
नयोंके विषयको दिखानेके लिए गुण, पर्याय और द्रव्यका लक्षण तथा संख्याका पहले सामान्य कथन किया । अब उन्हींका विशेषरूपसे कथन करते हैं ||१५||
आकाश, पुद्गल, जीव, धर्म, अधर्म और कालद्रव्य आकाशके गर्भ में जिस प्रकारसे स्थित हैं, क्रमशः उनका कथन करते हैं । अर्थात् आकाशमें स्थित सब द्रव्योंके स्वरूपादिका कथन करते
॥९६॥
सबसे प्रथम आकाशद्रव्यका विशेष लक्षण और भेद कहते हैं
जिनेन्द्रदेवने आकाशद्रव्यको अचेतन, अमूर्तिक, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। वह लोक और अलोकके भेदसे दो रूप है ॥९७॥
विशेषार्थ- - आकाशद्रव्य एक है, अचेतन है, अमूर्तिक है, निष्क्रिय है और सर्वत्र व्यापक है । ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ आकाशद्रव्य नहीं है । उसमें न तो चेतनागुण है और न रूप, रस, गन्ध और स्पर्शगुण हैं । इसलिए वह अचेतन और अमूर्तिक है। उसका कार्य है सब द्रव्योंको अवगाह देना। सभी द्रव्य आकाश के अन्दर ही पाये जाते हैं । सब द्रव्यों में क्रियावान् दो ही द्रव्य हैं जीव और पुद्गल । अतः जीव और पुद्गल जब एक स्थान से चलकर दूसरे स्थान में पहुँचते हैं तो उन्हें अवगाहको आवश्यकता होती है यह काम आकाश करता है उससे उन्हें अवगाहकी प्राप्ति होती है । अतः मुख्य रूपसे अवगाह क्रिया जीव पुद्गल में ही होती है । शेष सब द्रव्य तो अपने-अपने स्थानपर ही सदा स्थित रहते हैं, एक स्थान से दूसरे स्थानपर नहीं जाते अतः उनमें अवगाहरूप क्रिया मुख्यतासे नहीं है । फिर भी चूँकि वे आकाशके अन्दर ही स्थित हैं अतः उपचारसे उनमें भी अवगाहरूप क्रिया मानी गयी है । शंका- यदि धर्मादिद्रव्यों का आधार लोकाकाश है तो आकाशका आधार क्या है ? समाधान - आकाशका आधार अन्य नहीं है, वह अपने ही आधार है । शंका- यदि आकाश अपने आधार है तो धर्मादि द्रव्योंको भी अपने ही आधार होना चाहिए। यदि धर्मादि द्रव्योंका आधार कोई अन्य द्रव्य है तो आकाशका भी दूसरा आधार होना चाहिए। समाधान - आकाशसे बड़ा कोई अन्य द्रव्य नहीं है जिसके आधार से आकाश रह सके । आकाश तो सब और अनन्त है— उसका कहीं अन्त ही नहीं है । तथा निश्चयनयसे सभी द्रव्य अपने आधार हैं । कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्यके आधार नहीं
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१. सामण्णेणुत्ता जे भ० क० ख० मु० । २. दव्वलक्खणं अ० क० । ३. 'सव्वेसि जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासम् ।।९० : १ - पञ्चास्ति० । 'अवगास दाणजोगं जीवादीणं वियाण आयासं । जेन्हं लोगागासं अल्लोगागास मिदि दुविहं ।। १९।। घम्साघम्माकालो पुग्गलजीवाय संति जावदिये । आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुति ||२०|| - द्रव्यसंग्रह |
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