SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका कराई थी। इससे ज्ञात होता है कि शिवमार द्वितीय अपने पिता श्रीपुरुषकी तरह हो जैनधर्मका उत्कट समर्थक एवं प्रभावक था । अतः अधिक सम्भव है कि विद्यानन्दने अपने श्लोकवात्तिककी रचना इसी शिवमार द्वितीय गंगनरेशके राज्यकालमें की होगी और इसलिये उन्होंने अपने समयके इस राजा 'शिव-सुधा-धारावधान-प्रभुः' शब्दोंद्वारा उल्लेख किया है तथा 'सज्जनताऽऽश्रयः', 'तीव्रप्रतापान्वितः' आदि पदोंद्वारा उसके गुणोंका वर्णन किया है। उक्त पद्य अन्तिम प्रशस्तिरूप है, इसलिये उसमें ग्रन्थकारद्वारा अपना समय सूचित करनेके लिये तत्कालीन राजाका नाम देना उचित हो है। यद्यपि उक्त पद्यमें 'शिवमार' राजाका पूरा नाम नहीं है केवल 'शिव' पदका ही प्रयोग है तथापि नामैकदेशग्रहणसे भी पूरे नामका ग्रहण कर लिया जाता है, जैसे पार्श्वसे पार्श्वनाथ, रामसे रामचन्द्र आदि। दूसरे, 'शिव' के आगे 'प्रभु' पद भी दिया हुआ है, जो राजाका भी प्रकारान्तरसे बोधक है। तीसरे, 'तीव्रप्रतापान्वितः' आदि पदप्रयोगोंसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वहाँ ग्रन्थकारको अपने समयके राजाका उल्लेख करना अभीष्ट है और इसलिये 'शिवप्रभु', 'शिवमारप्रभु' एक ही बात है। डफ सा. ने भी विद्यानन्दका समय ई० सन् ८१० बतलाया है। सम्भव है उन्होंने श्लोकवात्तिकके इस प्रशस्तिपद्यपरसे, जिसमें शिवमारका उल्लेख सम्भाव्य है, विद्यानन्दका उक्त समय बतलाया हो। क्योंकि गंगवंशी शिवमारनरेशका समय ई० ८१० के लगभग माना जाता है जैसा कि पहले कहा जा चुका है। इस शिमारका भतीजा और विजयादित्यका लड़का राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम शिवमारके राज्यका उत्तराधिकारी हुआ था तथा ई० सन् ८१६ के आसपास राजगद्दीपर बैठा था। विद्यानन्दने अपने उत्तर ग्रन्थोमें 'सत्यवाक्य' के नामसे इसका भी उल्लेख किया प्रतीत होता है। यथा १. देखो, जैन सि० भा० वर्ष ३, किरण ३ गत बा० कामताप्रसादजीका लेख । २. गंगवंशमें होनवाले कुछ राजाओंकी 'सत्यवाक्य' उपाधि थी। इस उपाधिको धारण करनेवाले चार राजा हुए हैं-प्रथम सत्यवाक्य ई. सन् ८१५ के बाद, द्वितीय सत्यवाक्य ई० सन् ८७० से ९०७, तृतीय सत्यवाक्य ई० ९२० और चौथे सत्यवाक्य ई० ९७७ । यह मुझे बा० ज्योतिप्रसादजी एम. ए. एल-एल. बी. ने बतलाया है जिसके लिये मैं उनका आभारी हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy