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प्रस्तावना
सेनने इनका स्मरण किया है। अतः विद्यानन्द ई० सन् ७५० ( कुमारसेनके अनुमानित समय ) के बाद हुए हैं।
३. चूँकि विद्यानन्दसे सुपरिचित कुमारसेनका हरिवंशपुराणकार ( ई० ७८३ ) ने स्मरण किया है, किन्तु आ० विद्यानन्दका स्मरण उन्होंने नहीं किया, इससे प्रतीत होता है कि उस समय कुमारसेन तो यशस्वी वृद्ध ग्रन्थकार रहे होंगे और उनका यश सर्वत्र फैल रहा होगा। परन्तु विद्यानन्द उस समय बाल होंगे तथा वे ग्रन्थकार नहीं बन सके होंगे। अतः इससे भी विद्यानन्दका उपयुक्त निर्धारित समय-ई० सन् ७७५ से ई० सन् ८४०-प्रमाणित होता है ।
४. आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकके अन्तमें प्रशस्तिरूपमें एक उल्लेखनीय निम्न पद दिया है :
जीयात्सज्जनताऽऽश्रयः शिव-सुधा धारावधान-प्रभुः, ध्वस्त-ध्वागत-ततिः समुन्नतगतिस्तीव-प्रतापान्वितः । प्रो ज्योतिरिवावगाहनकृतानन्तस्थितिर्मानतः,
सन्मार्गस्त्रितयात्मकोऽखिल-मल प्रज्वालन-प्रक्षमः ॥' - इस प्रशस्तिपद्य में विद्यानन्दने 'शिव-मार्ग'-मोक्षमार्गका जयकार तो किया ही है किन्तु जान पड़ता है उन्होंने अपने समयके गङ्गनरेश शिवमार द्वितीयका भी जयकार एवं यशोगान किया है। शिवमार द्वितीय पश्चिमी गङ्गवंशी श्रीपुरुष नरेशका उत्तराधिकारी और उसका पुत्र था, जो ई० सन् ८१० के लगभग राज्याधिकारी हुआ था। इसने श्रवणबेलगोलकी छोटो पहाड़ीपर एक वसदि बनवाई थी, जिसका नाम 'शिवमारनवसदि' था। चन्द्रनाथस्वामीवसदिके निकट एक चट्टानपर कनडीमें मात्र इतना लेख अङ्कित है-"शिवमारनवसदि" । इस अभिलेखका समय भाषा-लिपिविज्ञानकी दष्टिसे लगभग ८१० ई० माना जाता है। राइससा. का कथन है कि इस नरेशने कुम्मडवाडमें भी एक वसदि निर्माण १. 'आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् ।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ॥'-हरिवंश १-३८ । २. 'गुरोः कुमारसेनस्य यशो अजितात्मकं विचरति' शब्दोंसे भी यही प्रतीत
होता है। ३. देखो, शि० नं० २५६ (४१५)। ४. मेडिवल जैनिज्म पुष्ठ २४, २५ । ५. देखो, मैसूर और कुर्ग पृष्ठ ४१ ।
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