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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका यदि इनकी सन्मतिसूत्रटीकापर आ० प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका 'अकल्पित सादृश्य' है जैसा कि समझा जाता है, तो अभयदेवको प्रभाचन्द्र ( ई० १०१० से १०८० ) का समकालीन अथवा कुछ उत्तरवर्ती होना ही चाहिये। और उस हालतमें आ० अभयदेवका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका अन्तिम पाद और बारहवीं शतीका पूर्वार्ध ( वि० सं० १०७५ से ११५० ) अनुमानित होता है, क्योंकि पहले हम प्रमाणित कर आये हैं कि आ० प्रभाचन्द्रका प्रमेयकमलमार्तण्ड धारानरेश भोजदेवके राज्यकालके अन्तिम वर्षों-वि० सं० ११०० से ११०७ (ई० १०४३ से १०५० ) के लगभगकी रचना है। पर ये दोनों आचार्य एक-दूसरेके ग्रन्थोंसे अपरिचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि इन ग्रन्थोंमें वणित केवलिकवलाहार, सवस्त्रमक्ति और स्त्रीमुक्ति जैसे साम्प्रदायिक विषयोंके खण्डन-मण्डनमें जो उनकी ओरसे युक्तियाँ प्रतियुक्तियाँ दी गई हैं उनका एक-दूसरेके ग्रन्थों में कोई प्रभाव नहीं देख पड़ता। आ० अभयदेवने तो प्रतिमाभूषण जैसे एक और नये साम्प्रदायिक विषयकी चर्चाकी है और उसका कट्टर साम्प्रदायिकता को लिये हुए समर्थन भी किया है । यदि सन्मतिसूत्रटीकाकार आ० आ० अभयदेव प्रभाचन्द्रके पूर्ववर्ती होते और प्रभाचन्द्रको उनकी सन्मतिसूत्रटीका मिली होती तो वे अभयदेवका प्रमेयकमलमार्तण्डमें खण्डन अवश्य करते । कम-से-कम इस नये (प्रतिमाभूषण) साम्प्रदायिक विषयकी तो आलोचना अथवा चर्चा जरूर ही करते । पर प्रभाचन्द्रने न उसकी आलोचना की और न चर्चा हो की है। आ० अभयदेवने भी आ० प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डगत उक्त विषयोंको खण्डन-युक्तियों एवं मुद्दोंका कोई जवाब नहीं दिया और न उनका खण्डन ही किया है। यह असम्भव था कि अभयदेवको प्रभाचन्द्रका प्रमेयकमलमार्तण्ड मिलता और वे उनके
१. प्रमेयक० मा० की प्रस्ता० पृष्ठ ४६ । २. 'यद्यपि “भगवत्प्रतिमाया न भूषा आभरणादिभिर्विधेया' इति स्वाग्रहावष्ट
ब्धचतोभिदिगम्बरैरुच्यते तदपि अर्हत्प्रणीतागमापरिज्ञानस्य विजृम्भितमुपलक्ष्यते, तत्करणस्य शुभभावनिमित्ततया कर्मक्षयाऽबन्ध्यकारणत्वात् । तथा हि-भगवत्प्रतिमाया भूषणाधारोपणं कर्मक्षयकारणम्, कतुमनःप्रसादजनकत्वात् ।...""एवमन्यदपि आगमबाह्यं स्वमनीषिवया परपरिकल्पितमागमयुक्तिप्रदर्शनेन प्रतिषेद्धव्यम्, न्यायदिशः प्रदर्शितत्वात् । तदेवम् अनधीताऽश्रुतयथावदपरिभावितागमतात्पर्या दिग्वासस इव (एव) आप्ताज्ञां विगोपयन्तीति व्यवस्थितम् ।'-सन्मति टी० पृ० ७५४-७५५ ।
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