SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना णाय स्वयमभ्युपगमात् । तस्य च छलजातिनिग्रहस्थानैः कतु मशक्य-.. त्वात् । परस्य तूष्णीभावार्थं जल्पवितण्डयोश्छलायुद्भावनमिति चेत्, न; तथा परस्य तूष्णीभावाभावादसदुत्तराणामानन्त्यात् ।' -प्रमेयक० पृ० ६४७ । 'परतन्त्रोऽसौ होनस्थानपरिग्रहवत्त्वात्, कामोद्रेकपरतन्त्रवेश्याग्रहपरिग्रहवच्छोत्रियब्राह्मणवत् । हीनस्थानं हि शरीरं तत्परिग्रहवांश्च संसारी प्रसिद्ध एव । कथं पुनः शरीरं हीनस्थानमात्मनः' इति, उच्यते; हीनस्थानं शरीरम्, आत्मनो दुःखहेतुत्वात्, कस्यचित्काराग्रहवत् । ननु देवशरीरस्य दुःखडेतत्वाभावात्पक्षाव्यापको हेतुरिति चेत्, न; तस्यापि मरणे दुःखहेतुत्व सिद्ध : पक्षव्यापकत्वव्यवस्थानात् ।' -आप्तपरीक्षा. पृष्ठ ३ । 'तथा हि-परतन्त्रोऽसौ होनस्थानपरिग्रहवत्त्वात्, मद्योद्रेकपरतन्त्राशुचिस्थानपरिग्रहवद्विशिष्ट्रपुरुषवत् । हीनस्थानं हि शरीरं आत्मनो दुःखहेतुत्वात्कारागारवत् । तत्परिग्रहवांश्च संसारी प्रसिद्ध एव । न च देवशरीरे तदभावात्यक्षाव्याप्तिः, तस्यापि मरणे दुःख हेतुत्वप्रसिद्धेः ।' -प्रमेयकमलमार्तण्ड पृष्ठ २४३ । निःसन्देह प्रभाचन्द्रको विद्यानन्दके ग्रन्थोंका खूब अभ्यास था और वे उनमे पर्याप्त प्रभावित थे। प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथम परिच्छेदके अन्तमें उन्होंने विद्यानन्दका श्लेषरूपमें निम्न प्रकार नामोल्लेख भी किया है: __ 'विद्यानन्द-समन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम् । ४. आ० अभयदेव-इन्होंने सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रपर तत्त्वबोधिनी नामको सुविस्तृत टीका लिखी है। इसमें विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक, प्रमाणपरीक्षा आदि ग्रन्थोंका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । सन्मतिसूत्रटीका ( पृष्ठ ७४७, ७४९ )में विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक ( पृष्ठ ४६४ ) गत वस्त्रादिग्रहणको ग्रन्थ और मूर्छाका कार्य बतलाने रूप मतका समालोचन भी किया गया प्रतीत होता है। इनका समय विक्रमकी १०वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और ११वींका पूर्वार्द्ध बतलाया जाता है। परन्तु न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी इन्हें विक्रमकी ग्यारहवींके उत्तरार्धका विद्वान् मानने में भी बाधा नहीं समझते। हमारा विचार है कि १. सन्मतितर्ककी गुजराती प्रस्तावना पृ० ८३ । २. प्रमेयक० मा० की प्रस्ता० पृष्ठ ४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy