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प्रस्तावना
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अपने विरुद्ध साम्प्रदायिक मन्तव्यों का खण्डन न करते । अतः प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थकारों को एक-दूसरेके ग्रन्थ प्राप्त नहीं हुए । और इसका कारण यह जान पड़ता है कि ये दोनों ग्रन्थकार सम्भवतः समकालीन हैं और उनके ग्रन्थ एक कालमें रचे गये हैं । इन ग्रन्थोंमें उपलब्ध 'अकल्पित सादृश्य' तो अन्य ग्रन्थों - 'भट्टजयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह, व्योमशिवकी व्योमवतो, जयन्तकी न्यायमंजरी, शान्तरक्षित और कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रह और उसकी पंजिका तथा विद्यानन्दके अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक, प्रमाणपरीक्षा आदि' - का भी हो सकता है, जैसा कि उक्त पंडितजी स्वयं स्वीकार भी करते हैं । हमारा कहना सिर्फ इतना और है कि प्रमेयकमलमार्त्तण्डका सम्मतिसूत्र टीकामें और सन्मतिसूत्रटीकाका प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में कोई ऐसा सादृश्य एवं प्रभाव नहीं देख पड़ता जो उन्हींका अपना हो । अतः सम्भव है ये दोनों आचार्य समकालीन हों ।
५. आ० वादि देवसूरि-ये जैन तार्किकोंमें प्रमुख तार्किक गिने जाते हैं । विक्रम सं० १९४३ ( ई० स० १०८६ ) में इनका जन्म और वि० सं० १२२६ ( ई० स० ११६९ ) में स्वर्गवास कहा जाता है । इन्होंने 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार' नामका न्यायसूत्रग्रन्थ और उसपर स्वयं स्याद्वादरत्नाकर नामकी विशाल टोका लिखी है । हम पहले कह आये हैं कि इनका प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार आ० माणिक्यनन्दिके परीक्षामुख-का शब्दश: और अर्थश: अनुसरण है । इसके ६ परिच्छेद तो परीक्षामुखके ६ परिच्छेदों की तरह ही हैं और दो परिच्छेद ( नयपरिच्छेद तथा वादपरिच्छेद ) परीक्षामुखसे ज्यादा हैं । इस तरह यह ८ परिच्छेदों का सूत्रग्रन्थ है । सूत्ररचनामें इन्होंने आ० विद्यानन्दके भो तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा आदि ग्रन्थोंकी सहायता ली है । टीका में एक जगह विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवातिक और विद्यानन्द महोदयगत धारणालक्षणकी आलोचनाका भी प्रयास किया है । आ० विद्यानन्द और
१. " यत्तु विद्यानन्दः प्रत्यपादयत् । 'स्मृतिहेतुः स धारणा" इति तत्र स्मृतिहेतुत्वं धारणायाः साक्षात्पारम्पर्येण वा विवक्षितम् । 'ततो धारणारूपपर्यायोपढौकितः पुरुषशक्तिविशेष एव संस्कारपर्यायः स्मृतेरान्तर्येण हेतुर्न धारणेति । अथ किमिदमसञ्जसमुच्यते । न खलु संस्कारादन्या धारणाऽस्य मता । तथा चायमेव श्लोकवार्तिके, 'अज्ञानात्मकतायां तु संस्कारस्येहितस्य वा । ज्ञानोपादानता न स्याद्रपादेरिव साऽस्ति च ॥ १ ॥ '
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