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________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका २. आ० वादिराज-इन्होंने अपना पार्श्वनाथचरित' नामका काव्यग्रन्थ शक सं० ९४७, ई० १०२५ में समाप्त किया है। अतः इनका समय ई० १०२५ सुनिश्चित है । ये कवि और तार्किक दोनों थे । न्यायविनिश्चयविवरण, प्रमाणनिर्णय ये दो तर्कग्रन्थ और पार्श्वनाथचरित, यशोधरचरित ये दो काव्यग्रन्थ तथा एकीभावस्तोत्र आदि इनकी रचनाएँ हैं। इन्होंने आ० विद्यानन्दका पार्श्वनाथचरित' और न्यायविनिश्चयविवरण (अन्तिम है कि 'नयनन्दिने माणिक्यनन्दिको महापण्डित घोषित किया है जिससे प्रतीत होता है कि वे न्यायशास्त्र आदिके महाविद्वान् होंगे।' इस सम्भावना का पुष्ट प्रमाण भी मिल गया है। नयनन्दिने अपभ्रंशमें 'सकलविधिविधान' नामक एक ग्रन्थ और बनाया है। उसकी विस्तृत प्रशस्तिमें, जो हालमें पं० परमानन्दजीसे देखनेको मिली है, नयनन्दिने माणिक्यनन्दिको 'महापण्डित' बतलानेके साथ ही साथ उन्हें प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणरूप जलसे भरे, नयरूपी तरंगोंसे गम्भीर और उत्तम सातभङ्गरूप कल्लोलोंसे उच्छलित जिन शासनरूपी निर्मल महासरोवरमें अवगाहन करनेवाला भी लिखा है । यथा 'पच्चक्ख-परोक्खपमाणणीरे, णयततरलतरंगावलिगहीरे । वरसत्तभंगिकल्लोलमाल, जिणसासणसरिणिम्मलसुसाल । पंडियचूडामणि विबुहचंदु, माणिक्कणंदिउ उप्पण्णु कंदु ।' -सकलविधिविधान प० ६, छन्द १० के बाद । इससे स्पष्ट है कि नयनन्दिको यहाँ महापण्डित माणिक्यनन्दिके लिये न्यायशास्त्रका धुरन्धर विद्वान् बतलाना अभीष्ट है और ये माणिक्यनन्दि वे ही माणिक्यनन्धि होना चाहिये जो प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणप्रतिपादक परीक्षामुखके कर्ता हैं। पण्डित परमानन्दजीसे 'सुदंसणचरिउ' की एक दूसरी प्रशस्ति भी प्राप्त हुई है। इस प्रशस्तिमें माणिक्यनन्दिकी जो गुरु-परम्परा दी है वह इस प्रकार हैकुन्दकुन्दकी आम्नायमें पदमनन्दि, पद्मनन्दिके बाद विष्णुनन्दि, विष्णुनन्दिके बाद नन्दनन्दि, नन्दनन्दिके बाद विश्वनन्दि और विश्वनन्दिके बाद वृषभनन्दि हुए । इन वृषभनन्दिका शिष्य रामनन्दि हुआ, जो अशेष ग्रन्थोंका पारगामी था । इनका शिष्य त्रैलोक्यनन्दि हुआ, जो गुणोंके आवास थे। इन त्रैलोक्यनन्दिके शिष्य ही प्रस्तुतमें 'महापण्डित' माणिक्यनन्दि थे, जो सुदर्शनचरितकार नयनन्दि (वि० सं० ११०० ) के गुरु थे और न्यायशास्त्रके बड़े विद्वान् थे । १. "ऋजुसूत्र स्फुरद्रत्न विद्यानन्दस्य विस्मयः । शृण्वतामप्यलंकारं दीप्तिरङ्गेषु रङ्गति ।। श्लोक २८ ॥" २. “विद्यानन्दमनन्तवीर्यसुखदं श्रीपूज्यपादं दया. पालं सन्मतिसागरं कनकसेनाराध्यमभ्युद्यमी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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