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प्रस्तावना
५७
पाँचवाँ आधार यह है कि प्रभाचन्द्रके पद्मनन्दि सैद्धान्त और चतुमुखदेव, जिन्हें वृषभनन्दि भी कहा जाता है, ये दो गुरु बतलाये जाते हैं
और ये दोनों ही नयनन्दि ( ई० १०४३ ) के सुदर्शनचरित्रमें भी माणिक्यनन्दिके पूर्व उल्लिखित हैं। अतः नयनन्दिके विद्यागुरु माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्रके भी न्यायविद्यागुरु रहे होंगे और वे हो परीक्षामुखके कर्ता होंगे। एक व्यक्तिके अनेक गुरु होना कोई असंगत भी नहीं है । वादिराज सरिके भी मतिसागर, हेमसेन और दयापाल ये तोन गुरु थे।
छठा आधार यह है कि परोक्षामखकार माणिक्यनन्दि वादिराज ( ई० १०२५ ) से पूर्ववर्ती प्रतोत नहीं होते, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। __ इस विवेचनसे यह निष्कर्ष सामने आता है कि माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र साक्षात् गुरु-शिष्य थे और प्रभाचन्द्रने अपने साक्षात् गुरु माणिक्यनन्दिके परीक्षामखपर उसीप्रकार टीका लिखी है जिसप्रकार बौद्ध विद्वान् कमलशील ( ई. ८५०)२ ने अपने साक्षात् गुरु शान्तरक्षित ( ई० ८२५) के 'तत्त्वसंग्रह' पर 'पञ्जिका' व्याख्या रची है। अतः इन सब आधारोंप्रमाणों और सङ्गतियोंसे परीक्षामुखकार आचार्य माणिक्यनन्दि प्रमेय. कमलमार्तण्ड आदि प्रसिद्ध तर्कग्रन्थोंके कर्ता आ० प्रभाचन्द्र के समकालीन अर्थात् वि. सं. १०५० वि. सं. से १११० (ई. स. ९९३ से ई. १०५३)के विद्वान् अनुमानित होते हैं और उनके परीक्षामुखका रचनाकाल वि० सं० १०८५, ई० स० १०२८ ( ई० सन् ०२५ में रचे गये वादिराजके पार्श्वनाथचरितके बाद ) के करीब जान पड़ता है। इस समयके स्वोकारसे आ० विद्यानन्द ( ९वीं शती ) के ग्रन्थवाक्यों। परीक्षामुखमें अनुसरण, आ० वादिराज ( ई० १०२५ ) द्वारा अपने ग्रन्थों में परीक्षामुख और आ० माणिक्यनन्दिका अनुल्लेख, मुनि नयनन्दि ( ई० १०४३ ) और आ० प्रभाचन्द्र (ई० १०१० से ई० १०८०) के गुरु-शिष्यादि उल्लेखों आदिकी संगति बन जाती है। अस्तु । १. 'येरेकान्तकृपालुभिर्मम मनोनेत्रं समुन्मीलितं,
शिक्षारत्नशलाकया हितपदं पश्यत्यदृश्यं परैः । ते श्रीमन्मतिसागरो मुनिपतिः श्रीहेमसेनो दयापालश्चेति दिवि स्पृशोऽपि गुरवः स्मृत्याऽभिरक्षन्तु माम् ॥२२॥'
-न्यायवि. वि. लि. द्वि. प्रस्तावना । २. ३. वादन्यायका परिशिष्ट । ४. ऊपर नयनन्दिकी 'सुदंसणचरिउ' गत प्रशस्तिपरसे यह सम्भावना को गई
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