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________________ प्रस्तावना प्रशस्ति ) में स्मरण किया है और उनके तत्त्वार्थालङ्कार ( तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक ) तथा देवागमालङ्कार ( अष्टसहस्री)की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि 'आश्चर्य है विद्यानन्दके इन दीप्तिमान् अलङ्कारोंको सुनने वालों के भी अंगोंमें दीप्ति ( आभा ) आ जाती है उन्हें धारण करनेवालोंकी तो बात हो क्या है।' न्यायविनिश्चयविवरणमें ये एक जगह लिखते हैं कि यदि गुणचन्द्रमुनि (?), अनवद्यचरण विद्यानन्द और सज्जन अनन्तवीर्य ( रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य ) ये तीनों विद्वान् देव ( अकलङ्कदेव ) के गम्भीर शासनके तात्पर्यका स्फोट न करते तो उसे कौन समझनेमें समर्थ था।' प्रकट है कि आ० विद्यानन्दने अकलङ्कदेवकी अष्टशतीके तात्पर्यको अपनी अष्टसहस्रीद्वारा प्रकट किया है। इससे ज्ञात होता है कि वादिराजसूरि आचार्य विद्यानन्द और उनके ग्रन्थोंसे काफी प्रभावित थे। ३. आ० प्रभाचन्द्र-ये जैनसाहित्य में तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रके नामसे प्रसिद्ध हैं। पहले कहा जा चुका है कि ये धारा ( मालवा ) में रहते थे और राजा भोजदेव तथा जयसिंहदेवके समकालीन हैं। अतः इनका समय शुद्ध्यन्नीतिनरेन्द्रसेनमकलंकं वादिराजं सदा श्रीमत्स्वामिसमन्तभद्रमतुलं वन्दे जिनेन्द्र मुदा ॥२॥ "देवस्य शासनमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यतः क इव बोद्ध मतीवदक्षः । विद्वान्न चेद् सद्गुणचन्द्रमुनिनं विद्यानन्दोऽनवद्यचरणः सदनन्तवीर्यः ।। .-न्यायवि. वि० लिखित पत्र ३८२ । २. मालूम नहीं, ये गुणचन्द्रमुनि कौन हैं और उन्होंने अकलंकदेवके कौन-से ग्रन्थकी व्याख्यादि की है ? शायद यह पद अशुद्ध हो । फिर भी उक्त उल्लेखसे अकलंकके शासन के व्याख्यातारूपमें उन्हें जुदा व्यक्ति जरूर होना चाहिए। विद्यानन्दने अष्टशतीका अष्टसहस्री द्वारा, अनन्तवीर्यने सिद्धिविनिश्चयका सिद्धिविनिश्चयटीका द्वारा, वादिराजने न्यायविनिश्चयका न्यायविनिश्चयविवरणद्वारा और प्रभाचन्द्रने लघीयस्त्रयका लघीयस्त्रयालंकार ( न्यायकुमुदचन्द्र ) द्वारा अकलंकदेवके शासन ( वाङ्मय )का तात्पर्य स्फोट किया है । प्रभाचन्द्र वादिराजके उत्तरवर्ती हैं और इसलिए 'सद्गुणचन्द्रमुनि' पदसे प्रभाचन्द्रका तो ग्रहण नहीं किया जा सकता है। अतः इस पदका वाच्य कोई उनसे पूर्ववर्ती अन्य आचार्य होना चाहिए । परन्तु अब तक जैन साहित्यमें विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र इन चार विद्वानाचार्योंके सिवाय अकलंकके व्याख्यातारूपमें उनसे पूर्व कोई दृष्टिगोचर नहीं. होता । विद्वानोंको इस पदपर विचार करना चाहिए।-सम्पा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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