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________________ ४६ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका का भी अनुसरण किया गया है। और ये तीनों विद्वान् ईसाकी सातवीं शताब्दीके माने जाते हैं। अतः न्यायावतार और उसके कर्ताको उनके बादका अर्थात् ८ वीं शतीका होना चाहिए। अकलंदेवने सन्मतिसूत्रगत केवलीके ज्ञान-दर्शनोपयोगके अभेदवादका खण्डन किया है और पूज्यपादने केवल पूर्वागत केवलीके ज्ञानदर्शनोपयोगके युगपत्वादका समर्थन किया है उन्हींने अभेदवादका खण्डन नहीं किया। यदि अभेदवाद पूज्यपादके पहले प्रचलित हो गया होता तो उनके द्वारा उसका आलोचन सम्भव था। अतः सन्मतिसूत्र और उसके कर्ताका समय अकलङ्क (७ वीं शती ) और पूज्यपाद ( ६ वीं शती ) का मध्यवर्ती होना चाहिए अर्थात् ६ ठी का उत्तरार्ध और ७ वींका पूर्वार्ध ( ई० ५७५ से ६५० ) उनका समय मानना चाहिए। तीसरी द्वात्रिंशतिकाके १६वें पद्यका पहला चरण पूज्यपाद ( ६ वीं शती) की सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत है। दूसरे, सन्मतिसत्र में केवलदर्शन तथा केवलज्ञानके अभेदवादका प्रतिपादन है और द्वात्रिशतिकाओंमें उनके युगपत्वादका समर्थन है जो पूर्वागत है। अतः इन दोनों कृतियोंमें विरोध तथा विभिन्न काल है-सन्मतिसूत्र पूज्यपादके उत्तरवर्ती रचना है और द्वात्रिंशत्काएँ (सब नहीं-प्रायः कुछ ) उनके पर्ववर्ती कृतियाँ हैं। इसके सिवाय न्यायावतार और सन्मतिसूत्र इन दोनोंका भी द्वात्रिंशत्काओंके साथ विरोध है। प्रकट है कि न्यायावतार और सन्मतिसत्रमें मति और श्रुत दोनोंको अभिव नहीं बतलाया--दोनों वहाँ भिन्नरूपमें ही निर्दिष्ट हैं। परन्तु निश्चयद्वा. ( १९ ) में मति और श्रत दोनोंको अभिन्न प्रतिपादन किया गया है। यदि ये तीनों कृतियाँ एक व्यक्तिको होती तो उनमें परस्पर विरुद्ध प्रतिपादन न होता। मालूम होता है कि यह बात प्रज्ञानयन पं० सुखलालजीकी दृष्टि में भी आयी है और इसलिये उन्होंने उसके समन्वयका प्रयास करते हुए लिखा है कि 'यद्यपि दिवाकरश्रीने अपनी बत्तीसी ( निश्चय. १९ ) में मति और श्रुतके अभेदको स्थापित किया है फिर भी उन्होंने चिरप्रचलित मति-श्रुतके भेदकी सर्वथा अवगणना नहीं की है। उन्होंने न्यायावतारमें आगम प्रमाणको स्वतंत्ररूपसे निर्दिष्ट किया है। जान पड़ता है इस जगह दिवाकरश्रीने प्राचीन परम्पगका अनुसरण किया है और उक्त बत्तीसीमें अपना स्वतंत्र मत व्यक्त किया है ।' परन्तु उनका यह समन्वय बुद्धिको १. देखो, वत्तीसी २-२७, २-३०, १-३२ । २. 'वैयातिप्रसङ्गाभ्यां न मत्यभ्यधिक श्रु तम्'-१९-१२ । ३. ज्ञानबि० प्रस्ता० पृ० २४का फुटनोट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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