________________
प्रस्तावना
नहीं लगता। कोई भी स्वतंत्र विचारक अपने स्वतंत्र विचारको प्राचीन परम्पराकी अवगणनाके भयसे एक जगह उसका त्याग और दूसरी जगह अत्याग नहीं कर सकता। आ० विद्यानन्दने श्लोकवात्तिकमें प्रत्यभिज्ञानके दो भेद प्रतिपादन किये हैं और यह उनका स्वतन्त्र विचार है-अकलङ्कदेव आदिसे उनका यह भिन्न मत है। परन्तु उन्होंने प्राचीन परम्पराकी अवगणनाके भयसे किसी कृतिमें अपने इस स्वतन्त्र विचारोंको नहीं छोड़ा है-उनके अपने दूसरे ग्रन्थों ( अष्टसहस्रो आदि ) में भी प्रत्यभिज्ञानके दो ही भेद प्रतिपादित हैं। अतः दिवाकरश्री अपने स्वतन्त्र विचारको सब जगह एकरूपमें ही रखनेके लिये स्वतन्त्र थे। अतः उक्त तीनों ग्रन्थ एक सिद्धसेनकृत मालूम नहीं होते-उन्हें विभिन्नकालवर्ती तीन सिद्धसेनोंकृत अथवा तीन विद्वानोंकृत होने चाहिये। इससे 'न्यायावतार'को सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेनकी रचना माननेमें जो असङ्गति और बेमेलपना आता है वह नहीं आवेगा। विद्वानोंको इसपर सूक्ष्म और निष्पक्ष विचार करना चाहिये।
५. पात्रस्वामी-इनका दूसरा नाम पात्रकेसरी भो है। ये बौद्ध विद्वान् दिङ नाग ( ३४५-४२५ ई० ) के उत्तरवर्ती अकलङ्कदेव (७ वीं शतीके ) पूर्ववर्ती अर्थात् छठी, सातवीं शताब्दीके प्रौढ विद्वानाचार्य हैं। इन्होंने दिङनागके त्रिलक्षण हेतुका खण्डन करनेके लिये 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामका महत्वपूर्ण तर्कग्रन्थ रचा है, जो आज अनुपलब्ध है और जिसके उद्धरण तत्त्वसंग्रहादि विविध ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं। त्रिलक्षण हेतुका खण्डन करनेवाली 'अन्यथानुपपन्नवं यत्र यत्र त्रवेण किम् ।' आदि सुप्रसिद्ध कारिका इन्हींकी है। अकलङ्कदेवने इस कारिकाको न्यायविनिश्चय ( का० ३२३ के रूप में दिया है और सिद्धिविनिश्चयके 'हेतुलक्षणसिद्धि' नामके छठवें प्रस्तावके आरम्भमें उसे स्वामी ( पात्रस्वामी )का 'अमलापीढ पद' कहा है। बौद्धविद्वान् शान्तरक्षितने भी अपने तत्त्वसंग्रहमें उसे तथा उनकी कितनी ही दूसरी कारिकाओंको 'पात्रस्वामी के मतरूपसे दी हैं। आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० २०३ पर 'तथाह' और
१. देखो, का० १३६४ से : ३७९ तककी १६ कारिकाएँ। तत्त्वसंग्रहकारने
जिस शैलीसे इन १६ कारिकाओंको, जिनके मध्यमें 'नान्यथानुपपन्नत्वं' (१३६९) प्रसिद्ध कारिका भी है, वहाँ दिया है उससे ये सोलह कारिकाएँ 'त्रिलक्षणकदर्थन' से उद्धृत हुईं प्रतीत होती हैं और इसलिये ये सब पात्रस्वामीकी ही कृति जान पड़ती हैं ।-सम्पा० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org