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________________ प्रस्तावना ४५. सूत्र' नामका महत्वपूर्ण नन्थ स्वामी समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाकी तरह बहुत प्रसिद्ध है। इसमें उन्होंने स्वामी समन्तभद्रद्वारा प्रतिष्ठित स्याद्वाद और अनेकान्तवादका नयोंके विशद और विस्तृत विवेचन पूर्वक विभिन्न नयोंमें विभिन्न दर्शनोंका समावेश करके समर्थन किया है अर्थात् स्वामी समन्तभद्रने जो आप्तमीमांसामें निरपेक्ष नयोंको मिथ्या और सापेक्ष नयों. को सम्यक् बतलाकर अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की है उसीका समर्थन आ० सिद्धसेन दिवाकरने अपने हेतुवादद्वारा इसमें किया है और एक-एक नयको लेकर खड़े हए विभिन्न दर्शनोंके समन्वयकी अद्भुत प्रक्रिया प्रस्तुत की है। वास्तवमें जैनवाङमयमें जो उल्लेखनीय कृतियाँ हैं उनमें एक यह भी है। स्वामी वीरसेनने अपनी विशाल टीका धवलामें इसके वाक्योंको प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है और उसे 'सूत्र' रूपसे उल्लेखित किया है। अकलङ्देवने इनके इसी ग्रन्थगत केवलीके ज्ञान-दर्शन-अभेदवादकी, जो इन्हीं आ० सिद्धसेनद्वारा प्रतिष्ठित हुआ है, अपने तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० २५७) में आलोचना की है । आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक (प०३ ) में इनके इसी सन्मतिसूत्रके तीसरे काण्डगत “जो हेउवायपकखम्मि" आदि ४५ वी गाथा उद्धृत की है। एक दूसरी जगह (तत्त्वार्थश्लो० पृ० ११४ ) 'जावदिया वयणवहा तावदिया होति णयवाया' ( सन्म० ३-४७) गाथाका संस्कृत रूपान्तर भी दिया है। न्यायावतार और द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशतिका ये दो ग्रन्थ भी इन्हों सिद्धसेनके समझे जाते हैं। परन्तु ये तीनों ग्रन्थ एक-कतृक प्रतीत नहीं होते । न्यायावतारमें धर्मकीर्ति ( ई० ६३५ ) के प्रमाणवार्तिक और न्यायबिन्दुगत शब्द और अर्थका अनुसरण पाया जाता है । इसके अलावा, कुमारिल और पात्रस्वामी १. देखो, धवला, पहली जिल्द पृ० १५, ८०, १४६ । २. (क) 'न प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य सम्भवः। तस्मात् प्रमेयद्वित्वेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते ॥'-प्रमाणवा० ३-६३ ।। 'प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ।' -न्यायावा० श्लो० १॥ (ख) 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्'-न्यायबिन्दु पृ० ११।। ___ 'अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् ।' ....न्यायावा० श्लो० ५ । ३. देखो, कुमारिलका और न्यायावतारका प्रमाणलक्षणगत 'बाधवजित' विशेषण। ४. देखो, पात्रस्वामीकी 'अन्यथानुपपन्नत्वं' इत्यादि कारिका और न्यायावतारकी 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्' कारिकाको तुलना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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