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________________ प्रस्तावना शंका-यदि मुनि खण्डवस्त्रादि ग्रहण न करें-वे नग्न रहें तो उनके लिंगको देखनेसे कामनियोंके हृदयमें विकारभाव पैदा होगा। अतः उस विकारभावको दूर करनेके लिये खण्डवस्त्रका ग्रहण उचित है ? ___ समाधान-यह कथन भी उपरोक्त विवेचनसे खण्डित हो जाता है क्योंकि विकारभावको दूर करनारूप चेष्टा ही वस्त्राभिलाषाका कारण है। तात्पर्य यह कि यदि विकारभावको दूर करनेके लिए वस्त्रग्रहण होता है तो वस्त्राभिलाषाका होना अनिवार्य है। दूसरे, नेत्रादि सुन्दर अंगोंके देखने में भी कामिनियोंको विकारभाव उत्पन्न होना सम्भव है, अतः उनको ढकनेके लिये भी कपड़ेके ग्रहणका प्रसङ्ग आवेगा, जैसे लिङ्गको ढकनेके लिये कपड़ेका ग्रहण किया जाता है। आश्चर्य है कि मुनि अपने हाथसे बुद्धिपूर्वक खण्डवस्त्रादिको लेकर धारण करता हुआ भी वस्त्रखण्डादिकी मर्छारहित बना रहता है ? और जब यह प्रत्येय एवं सम्भव माना जाता है तो स्त्रीका आलिङ्गन करता हुआ भी वह मूर्छारहित बना रहे, यह भी प्रत्येय और सम्भव मानना चाहिए। यदि इसे प्रत्येय और सम्भव नहीं माना जाता तो उसे ( वस्त्रग्रहण करनेपर भी मूर्छा नहीं होती, इस बातको ) भी प्रत्येय एवं सम्भव नहीं माना जा सकता; क्योंकि वह युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है । अतः सिद्ध हुआ कि मूर्छाके बिना वस्त्रादिका ग्रहण सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्त्रादिग्रहण मूर्छाजन्य है-वस्त्रादिका ग्रहण कार्य है और मूर्छा उसका कारण है और कार्य, कारणके बिना नहीं होता । पर, कारण कार्यके अभावमें भी रह सकता है और इसलिये मूर्छा तो वस्त्रादिग्रहणके अभावमें भी सम्भव है, जैसे भस्माच्छन्न अग्नि धूमके अभावमें। ___ शङ्का-यदि ऐसा है तो पिच्छी आदिके ग्रहणमें भी मूर्छा होना चाहिए ? समाधान-इसीलिये परमनिर्ग्रन्थता हो जानेपर परिहारविशुद्धिसंयमवालोंके उसका (पिच्छी आदिका) त्याग हो जाता है, जैसे सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयम वाले मुनियोंके हो जाता है। किन्तु सामायिक और छेदोपस्थापनासंयमवाले मुनियोंके संयमका उपकरण होनेसे प्रतिलेखन (पिच्छी आदि ) का ग्रहण सूक्ष्म मूर्छाके सद्भावमें भी युक्त ही है। दूसरे, उसमें जैनमार्गका विरोध नहीं है। तात्पर्य यह कि जिन सामायिक और छेदोपस्थापना संयमवाले मुनियोंके पिच्छी आदिका ग्रहण है उनके सूक्ष्म मूर्छाका सद्भाव है और शेष तीन संयमवाले मुनियोंके www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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