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________________ ३४ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका पिच्छी आदिका त्याग हो जानेसे उनके मूर्छा नहीं है । दूसरी बात यह है कि मुनिके लिये पिच्छी आदिका ग्रहण जैनमार्ग के अविरुद्ध है, अतः उसके ग्रहण में कोई दोष नहीं है । लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मुनि वस्त्र आदि भी ग्रहण करने लगें; क्योंकि वस्त्र आदि नाग्न्य और संयम के उपकरण नहीं हैं । दूसरे, वे जैनमार्ग के विरोधी हैं। तीसरे, वे सभीके उपभोगके साधन हैं । इसके अलावा, केवल तीन-चार पिच्छ व केवल अलाबूफल – तूमरी ( कमण्डलु ) प्रायः मूल्य में नहीं मिलते, जिससे उन्हें भी उपभोगका साधन कहा जाय । निःसन्देह मूल्य देकर यदि पिच्छादिका भी ग्रहण किया जाय तो वह न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि उसमें सिद्धान्तविरोध है । मतलब यह कि पिच्छी आदि न तो मूल्यवान् वस्तुएँ हैं और न दूसरोंके उपभोगकी चीजें हैं । अतः मुनिके लिये उनके ग्रहणमें मूर्छा नहीं है । लेकिन वस्त्रादि तो मूल्यवाली चीजें हैं और दूसरेके उपभोग में भी वे आती हैं, अतः उनके ग्रहण में ममत्वरूप मूर्छा होती है । शंका- क्षीणमोही बारहवें आदि तीन गुणस्थानवालोंके शरीरका ग्रहण सिद्धान्त में स्वीकृत है, अतः समस्त परिग्रह मोह - मूर्छाजन्य नहीं है ? समाधान --नहीं; क्योंकि उनके पूर्वभव सम्बन्धी मोहोदयसे प्राप्त आयु आदि कर्मबन्ध निमित्तसे शरीरका ग्रहण है - वे उस समय उसे बुद्धिपूर्वक ग्रहण नहीं किये है । और यही कारण है कि मोहनीयकर्मके नाश हो जाने के बाद उसको छोड़नेके लिये परमचारित्रका विधान है । अन्यथा उसका आत्यन्तिक त्याग सम्भव नहीं है । मतलब यह कि बारहवें आदि गुणस्थानवाले मुनियोंके शरीरका ग्रहण आयु आदि कर्मबन्धके निमित्तसे है - इच्छापूर्वक नहीं है । शङ्का – शरीरकी स्थिति के लिये जो आहार ग्रहण किया जाता है उससे मुनिके अल्प मूर्छा होना युक्त ही है ? समाधान — नहीं; क्योंकि वह आहार ग्रहण रत्नत्रयकी आराधनाका कारण स्वीकार किया गया है । यदि उससे रत्नत्रयकी विराधना होती है तो वह भी मुनिके लिये अनिष्ट है। स्पष्ट है कि भिक्षाशुद्धिके अनुसार नवकोटि विशुद्ध आहारको ग्रहण करनेवाला मुनि कभी भी रत्नत्रय की विराधना नहीं करता । अतः किसी पदार्थका ग्रहण मूर्छाके अभाव में किसी के सम्भव नहीं है और इसलिये तमाम परिग्रह प्रमत्तके ही होता है, जैसे अब्रह्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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