SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका नहीं करता, क्योंकि वह निग्रन्थ और मूर्छारहित होता है । यद्यपि यह विचार सैद्धान्तिक शास्त्रोंमें प्राचीनतम कालसे निबद्ध है, पर तर्क और दर्शनके ग्रन्थोंमें वह अधिक स्पष्टता के साथ विद्यानन्दसे ही शुरू हुआ जान पड़ता है। उनका कहना है कि जैन सिद्धान्त में जैन मुनि उसीको कहा गया है जो अप्रमत्त और मूर्छारहित है । अतः यदि जैनमुनि वस्त्रादिको ग्रहण करता है तो वह अप्रमत्त और मूर्छा रहित नहीं हो सकता: क्योंकि मूर्छा के बिना वस्त्रादिका ग्रहण किसीके सम्भव नहीं है । इस सम्बन्ध में जो उन्होंने महत्त्वपूर्ण चर्चा प्रस्तुत की है उसे हम पाठकों के ज्ञानार्थ 'शङ्का-समाधान' के रूप में नीचे देते हैं शंका - लज्जानिवारणके लिये मात्र खण्ड वस्त्र ( कौपीन) आदिका ग्रहण तो मूर्छा के बिना भी सम्भव है ? समाधान-नहीं; क्योंकि कामकी पीडाको दूर करनेके लिये केवल स्त्रीका ग्रहण करनेपर भी मूर्छाके अभावका प्रसंग आवेगा और यह प्रकट है कि स्त्रीग्रहण में मूर्छा है । शंका- स्त्रीग्रहणमें जो स्त्रीके साथ आलिङ्गिन है वही मूर्छा है ? समाधान - तो खण्डवस्त्रादिके ग्रहण में जो वस्त्राभिलाषा है वह वहाँ मूर्छा हो । केवल अकेली कामकी पीडा तो स्त्रीग्रहण में स्त्रीकी अभिलाषाका कारण हो और वस्त्रादि ग्रहण में लज्जा कपड़े की अभिलाषाका कारण न हो, इसमें नियामक कारण नहीं है । नियामक कारण तो मोहोदयरूपं ही अन्तरंग कारण है जो वस्त्रग्रहण और स्त्रीग्रहण दोनोंमें समान है । अतः यदि स्त्रीग्रहण में मूर्छा मानी जाती है तो वस्त्रग्रहण में भी मूर्छा अनिवार्य है, क्योंकि बिना मूर्छाके वस्त्रग्रहण हो ही नहीं सकता... बन्धनत्वाच्च । न च त्रिचतुरपिच्छ मात्र मला बूफलमात्रं वा किञ्चिन्मूल्यं लभते यतस्तदप्युपभोगसम्पत्तिनिमित्तं स्यात् । न हि मूल्यदानक्रययोग्यस्य पिच्छादेरपि ग्रहणं न्याय्यम्, सिद्धान्तविरोधात् । ननु मूर्छा विरहे क्षीणमोहानां शरीरपरिग्रहोपगमान्न तद्ध ेतुः सर्वः परिग्रहः इति चेत्, न तेषां पूर्वभवमोहोदयापादितकर्मबन्धनिबन्धन शरीरपरिग्रहाभ्युपगमात् । मोहक्षयात्तत्त्यागार्थं परमचारित्रस्य विधानात् । अन्यथा तत्त्यागस्यात्यन्तिकस्य करणायोगात् । तर्हि तनुस्थित्यर्थमाहारग्रहणं यतस्तनुमूर्छाकारणक्षमं युक्तमेवेति चेन्न, रत्नत्रयाराधन निबन्धनस्यैवोपगमात् । तद्विराधन हेतोस्तस्याप्यनिष्टेः । न हि नवकोटिविशुद्धमाहारं भैक्ष्यशुद्धयनुसारितया गृह्णन् मुनिर्जातुचिद्रत्नत्रयविराधनविधायी । ततो न किञ्चित्पदार्थग्रहणं कस्यचिन्मूर्छाविरहे सम्भवतीति सर्वः परिग्रहः प्रमत्तस्यैवाब्रह्मवत् ।' – तत्त्वार्थश्लो. पू. ४६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy