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आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका
[ कारिका ११६
मत इति सर्वेषामास्तिकानां मोक्षस्वरूपे विवादाभावं दर्शयति तेषामात्मस्वरूपे कर्मस्वरूपे च विवादात् । स च प्रागेव निरस्तः, अनन्तज्ञानादिचतुष्टयस्य सिद्धत्वस्य चात्मनः स्वरूपस्य प्रमाणप्रसिद्धत्वात् । न ह्यचेतनत्वमात्मनः स्वरूपम्, तस्य ज्ञानसमवायित्वविरोधात्, आकाशादिवत्' । तत्कारणादृष्टविशेषासम्भवाच्च तद्वत्, तस्यान्तःकरणसंयोगस्यापि दुर्घटत्वात् । प्रतीयते च ज्ञानमात्मनि ततस्तस्य नाचेतन्यं स्वरूपम् ।
३०४. ज्ञानस्य चैतन्यस्यानित्यत्वात्कथमात्मनो नित्यस्य तत्स्वरूपम् ? इति चेत्; न; अनन्तस्य ज्ञानस्यानादेश्चानित्यत्वैकान्ताभावात् । ज्ञानस्य नित्यत्वे न कदाचिदज्ञानमात्मनः स्यादिति चेत्; न; तदावरणोदये तदविरोधात् । एतेन समस्तवस्तुविषयज्ञानप्रसङ्गोऽपि विनिवारितः,
'
'सर्वसद्वादिनां मतः' पदका प्रयोग है उससे सभी आस्तिकोंका मोक्षके स्वरूप विषय में विवादाभाव प्रदर्शित किया गया है अर्थात् मोक्षके उक्त स्वरूप में सभी आस्तिकों को अविवाद है - वे उसे मानते हैं । केवल आत्माके स्वरूप और कर्मके स्वरूप में उन्हें विवाद है किन्तु वह पहले ही निराकृत हो चुका है क्योंकि प्रमाणसे अनन्तज्ञानादिचतुष्टय और सिद्धत्व आत्माका स्वरूप प्रसिद्ध होता है । प्रकट है कि अचेतनता ( जडता ) आत्माका स्वरूप नहीं है, अन्यथा आत्माके ज्ञानका समवाय नहीं बन सकेगा, जैसे आकाशादिक में वह नहीं बनता है । और ज्ञानका कारणभूत अदृष्टविशेष भी आकाशादिकी तरह उस जड आत्मा) के सम्भव नहीं है । तथा अन्तःकरणसंयोग भी उसके दुर्घट है । और आत्मामें ज्ञान प्रतीत होता है । अतः आत्मा का अचेतनता स्वरूप नहीं है ।
९ ३०४. शंका - चैतन्यरूप ज्ञान अनित्य है और इसलिये वह नित्य - आत्माका स्वरूप कैसे बन सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ज्ञान अनन्त और अनादि है, इसलिये वह • सर्वथा अनित्य नहीं है - नित्य भी है ।
शंका- यदि ज्ञान नित्य है तो आत्माके कभी अज्ञान नहीं होना चाहिये ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणकर्मका उदय होनेपर अज्ञानके होने में कोई विरोध नहीं है । इस कथनसे समस्त पदार्थोंके ज्ञानका प्रसङ्ग
1. मुक 'आकाशादि' ।
2. व 'दज्ञतात्मनः ।
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