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कारिका ११६ ] अर्हन्मोक्षमार्गनेतृत्व-सिद्धि
३३३ ते च कर्मस्कन्धा बहवः इति कर्मस्कन्धराशयः सिद्धाः। ते च भूभृत इव भूभृत इति व्यपदिश्यन्ते समाधिवचनात् । तेषां कर्मभूभृतां भेदो विश्लेषणमेव न पुनरत्यन्तसंक्षयः, सतो द्रव्यस्यात्यन्तविनाशानुपपत्तेः प्रसिद्धत्वात् । तत एव कर्मभूभृतां भेत्ता भगवान् प्रोक्तो न पुर्नविनाशयितेति निरवद्यमिदं "भेत्तारं कर्मभूभृतां ज्ञातारं विश्वतत्त्वानाम्" इति विशेषणद्वितयं "मोक्षमार्गस्य नेतारम्" इति विशेषणवत् ।
[मोक्षस्य स्वरूपम् ] $ ३०२. कः पुनर्मोक्षः ? इत्याहस्वात्मलाभस्ततो मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयान्मतः । निर्जरासंवराभ्यां नुः सर्वसद्वादिनामिह ॥११६॥
$३०३. यत एवं ततः स्वात्मलाभो जीवस्य मोक्षः कृत्स्नानां कर्मणामागामिना सञ्चितानां च संवरनिर्जराभ्यां क्षयाद्विश्लेषात्सर्वसद्वादिनां बन्धक नहीं हैं, इस तरह कर्मस्कन्ध प्रसिद्ध होते हैं। तथा वे कर्मस्कन्ध बहत हैं, इसलिये कर्मस्कन्धराशि भी सिद्ध हो जाती है और चंकि वे पर्वतोंकी तरह विशाल और दुर्भेद्य हैं इसलिये उन्हें संक्षेपमें भूभत्पर्वत कहा जाता है। उन कर्मपर्वतोंका जो भेदन है वह उनका विश्लेषण-जुदा करना ही है, अत्यन्त नाश नहीं, क्योंकि सत्तात्मक द्रव्यका अत्यन्त विनाश नहीं होता, यह सर्वप्रसिद्ध है। इसीसे भगवान्को कर्मपर्वतोंका भेत्ता-भेदनकर्ता-विश्लेषणकर्ता कहा है, नाशकर्ता नहीं। इस प्रकार 'कर्मपर्वतोंका भेत्ता, विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता' ये दोनों आप्तके विशेषण निरवद्य हैं-निर्दोष हैं, जैसे 'मोक्षमार्गका नेता' यह विशेषण निर्दोष है।
६३०२. शंका-मोक्षका स्वरूप क्या है अर्थात् मोक्ष किसे कहते हैं ? समाधान-इसका उत्तर अगली कारिकामें कहते हैं
'चूंकि कर्मपर्वतोंका क्षय होता है, अतः समस्त कर्मोंका संवर और निर्जराद्वाग क्षय होकर जीव (पुरुष) को जो अपने स्वरूपका लाभ होता है वह आस्तिकोंके मोक्ष माना गया है ।'
$३०३. आगामी और सञ्चित समस्त कर्मोका संवर और निर्जराद्वारा क्षय होनेसे जीव के स्वात्मलाभरूप मोक्ष होता है। कारिकामें जो.
1. म 'तु'।
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