SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ११५ ६ ३०१. तथा'ऽऽकाशपरिणामात्मकत्वमपि प्रधानस्य न घटते मूर्तिमत्पृथिव्यादिपरिणामात्मकस्यामूर्ताकाशपरिणामात्मकत्वविरोधात्, घटादिवत् । शब्दादितन्मात्राणां तु पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकत्वमेव कर्मेन्द्रियद्रव्यमनोवत् । भावमनोबुद्धीन्द्रियाणां तु पुरुषपरिणामात्मकत्वसाधनान्न जीवपुद्गलद्रव्यव्यतिरिक्तं द्रव्यान्तरमन्यत्र धर्माधर्माकाशकालद्रव्येभ्य इति न प्रधानं नाम तत्त्वान्तरमस्ति। सत्त्वरजस्तमसामपि द्रव्यभावरूपाणां पुद्गलद्रव्यपुरुषद्रव्यपरिणामत्वोपपत्तेः, अन्यथा तदघटनात्, इति द्रव्यकर्माणि पुद्गलात्मकान्येव सिद्धानि, भावकर्मणां जीवपरिणामत्वसिद्धेः। तानि च द्रव्यकर्माणि पुद्गलस्कन्धरूपाणि, परमाणूनां कर्मत्वानुपपत्ते, जीवस्वरूपप्रतिबन्धकत्वाभावादिति कर्मस्कन्धसिद्धिः । घट वगैरह । और चेतन पुरुष है, इसलिये वह बुद्ध्यादिपरिणामात्मक है । ३०१. तथा प्रधानको जो आकाशपरिणामात्मक कहा जाता है वह भी नहीं बनता है, क्योंकि जो मूर्तिमान् पृथिवी आदिका परिणामरूप है - वह अमूत्तिक आकाशका परिणाम नहीं हो सकता। कारण, दोनों परस्परविरुद्ध हैं, जैसे घटादिक । शब्दादिक पाँच तन्मात्राएँ तो पुद्गलद्रव्यके परिणाम ही हैं, जैसे कर्मेन्द्रियाँ और द्रव्यमन । किन्तु भावमन और बद्धीन्द्रियाँ पुरुषपरिणामात्मक सिद्ध होती हैं और इस तरह जीव और पुद्गलके सिवाय धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्योंको छोड़कर अन्य द्रव्य सिद्ध नहीं होता। ऐसी हालतमें प्रधान नामका अलग तत्त्व नहीं है। सत्त्व, रज और तम ये तीन भी, जो द्रव्य और भावरूप हैं, पुद्गलद्रव्य और पुरुषद्रव्यके परिणाम सिद्ध होते हैं। यदि वे उन दोनोंके परिणाम न हों तो वे बन ही नहीं सकते हैं। तात्पर्य यह कि जो सत्त्व, रज और तम इन तीनकी साम्य अवस्थाको प्रधान कहा गया है वे तीनों भी जीव और पुद्गलके ही परिणाम हैं और इसलिये इन दोनोंके अलावा उन (सत्त्वादि) का आधारभूत कोई अलग द्रव्य नहीं है जिसे प्रधान माना जाय । इस प्रकार द्रव्यकर्म पद्गलपरिणात्मक हो सिद्ध होते हैं, क्योंकि भावकर्म जीवके परिणाम सिद्ध हैं। और वे द्रव्यकर्म पुद्गलस्कन्धरूप हैं, क्योंकि परमाणुओंमें कर्मपना नहीं बन सकता है। कारण, वे जीवस्वरूपके प्रति 1. द प्रतौ 'तथा शब्दो नाकाशपरिणामात्मकः पुद्गलपरिणामात्मकत्वात्, यदाकाशपरिणामात्मकं तन्न पुद्गलपरिणामात्मक' इति पाठः तथेत्यादिमूर्तिमदन्तपाठस्थाने उपलभ्यते । 2. द 'कर्मस्कन्धसिद्धेः' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy