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________________ अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि ३१३ दर्शनं तेषां निषेध्यसर्वज्ञाधारभूतं त्रिकालं भुवनत्रयं च कुतश्चित्प्रमाणाद् ग्राह्यम, तत्प्रतियोगी च प्रतिषेध्यः सर्वज्ञः स्मर्त्तव्य एव, अन्यथा तत्र नास्तिताज्ञानस्य मानसस्याक्षानपेक्षस्या'नुपपत्तेः। न च निषेध्याधारत्रिकालजगत्त्रयसद्भावग्रहणं कुतश्चित्प्रमाणान्मीमांसकस्यास्ति । नापि प्रतिषेध्यसर्वज्ञस्य स्मरणम् , तस्य प्रागननुभूतत्वात् । पूर्वं तदनुभवे वा क्वचित सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञाभावसाधनविरोधात्। २८६. ननु च पराभ्युपगमात्सर्वज्ञः पिद्धः, तदाधारभूतं च त्रिकालं भुवनत्रयं सिद्धम, तत्र श्रुतसर्वज्ञस्मरणनिमित्तं तदाधारवस्तुग्रहणनिमित्तं च सर्वज्ञे नास्तिताज्ञानं मानसमक्षानपेक्ष युक्तमेवेति चेतः नः स्वेष्ट. बाधनप्रसङ्गात् । पराभ्युपमस्य हि प्रमाणत्वे तेन सिद्धं सर्वज्ञं प्रतिषेधतोऽभावप्रमाणस्य तद्बाधनप्रसङ्गात् । तस्याप्रमाणत्वे न ततो निरपेक्ष मानसिक नास्तिताज्ञान ( अभावप्रमाणज्ञान ) होता है, यह जिनका सिद्धान्त है उन्हें निषेध्य-सर्वज्ञके आधारभूत तीनों काल और तीनों जगतका किसी प्रमाणसे ग्रहण करना चाहिये और उसके प्रतियोगी प्रतिषेध्य सर्वज्ञका स्मरण होना चाहिए। अन्यथा इन्द्रियनिरपेक्ष मानसिक अभावज्ञान नहीं हो सकता है। पर निषेध्यके आधारभूत त्रिकाल और तोनों जगतके सद्भावका ग्रहण किसी प्रमाणसे मीमांसकके नहीं है । और न ही प्रतिषेध्यसर्वज्ञका उसके स्मरण है, क्योंकि उसने उसका पहले कभी अनुभव ही नहीं किया है। यदि पहले उसका कहीं अनुभव हो तो सब जगह और सब कालमें सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता है । २८६. शंका-सर्वज्ञवादियोंके स्वीकारसे सर्वज्ञ सिद्ध है और उसके आधारभूत तीनों काल और तीनों जगत भी सिद्ध हैं। और इसलिए सुने सर्वज्ञके स्मरण और सर्वज्ञके आधारभत तीनों कालों तथा तीनों लोकोंके ग्रहणपूर्वक सर्वज्ञमें इन्द्रियनिरपेक्ष मानसिक 'सब जगह और सब कालमें सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रकारका अभावज्ञान युक्त है ? समाधान नहीं, क्योंकि इस तरह आपके इष्ट मतमें बाधा आती है। प्रकट है कि सर्वज्ञवादियोंका स्वीकार यदि प्रमाण है तो उससे सिद्ध सर्वज्ञ1. मु स 'अक्षानपेक्षस्य' पाठो नास्ति । तत्र स त्रुटितः प्रतीयते-- सम्पा० । 2. द 'सर्वज्ञस्मरणं'। 3. द 'सर्वदा सर्वत्र'। 4 स 'प्रमाणप्रसिद्धत्वे' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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