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________________ ३१२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ११० स्य कस्यचिद्वस्तुनोऽनभ्युपगमात् । अनुमानाद्य कज्ञानेन सर्वज्ञतदन - वस्तुनोः संसर्गात्सर्वजकज्ञानसंसर्गिणि क्वचिदनुमेयेऽर्थेऽनुमानज्ञानं सम्भवत्येवेति चेत्, न, तथा 'क्वचित्कदाचित्कस्यचित्सर्वज्ञस्य सिद्धिप्रसङ्गात्, सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य सर्वज्ञस्याभावे कस्यचिद्वस्तुनस्तेनैकज्ञानसंसर्गायोगात्तदन्यवस्तुविज्ञानलक्षणादभावप्रमाणात्सर्वज्ञाभावसाधनविरोधात् । $ २८५. किञ्च, गृहोत्वा निषेध्याधारवस्तुसद्भावं स्मृत्वा च तत्प्रतियोगिनं निषेध्यमर्थं नास्तीति ज्ञानं मानसमक्षानपेक्ष जायत इति येषां न्द्रिय है और इसलिये सर्वज्ञविषयक ज्ञान असम्भव है। अतएव सर्वज्ञके एकज्ञानसे संसर्गी हम लोगों आदिको प्रत्यक्षभूत कोई वस्तु स्वीकार नहीं की गई है। यदि कहा जाय कि अनुमानादि किसो एकज्ञानसे सर्वज्ञ और उससे अन्य वस्तुका संसर्ग बन सकता है और इसलिये सर्वज्ञके एकज्ञानसे संसर्गी किसी अनुमेय पदार्थमें अनुमानज्ञान सम्भव है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह कहीं कभी किसीके सर्वज्ञको सिद्धि हो जायगी। अतएव सब जगह, सब कालमें और सबके सर्वज्ञका अभाव माननेपर किसो वस्तुका उसके साथ एकज्ञानसंसर्ग नहीं बन सकता है। ऐसी हालतमें सर्वज्ञसे अन्य वस्तु में होनेवाले ज्ञानरूप अभावप्रमाणसे सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं होता। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार घट और भतल एक ही चाक्षुषज्ञानद्वारा ग्रहण होते हैं और जब घटरहित केवल भूतलका हो ग्रहण होता है तो वहाँ 'यहाँ भूतलमें घड़ा नहीं है, क्योंकि उपलब्धियोग्य होनेपर भी उपलब्ध नहीं होता' इस प्रकारसे घटका अभाव सिद्ध होता है उस प्रकार निषेध किया जानेवाला सर्वज्ञ और निषेधस्थान तीनों लोक और तीनों कालरूप वस्तु एक हो चाक्षुषादिज्ञानसे ग्रहण नहीं होते, क्योंकि सर्वज्ञ अतीन्द्रिय है और समस्त निषेधस्थान त्रिलोक तथा त्रिकालरूप वस्तु इन्द्रियद्वारा ग्रहण नहीं होती और इसलिये अन्य वस्तुमें ज्ञानरूप अभावप्रमाण बनता ही नहीं। अनुमानादिज्ञानसे सर्वज्ञ और तदन्य वस्तुका ग्रहण यदि माना जाय तो वह भी मोमांसकोंके यहाँ सम्भव नहीं है, क्योंकि सब जगह और सब कालोंमें तथा सबके सर्वज्ञका अभाव माननेवालोंके यहाँ सर्वज्ञविषयक अनुमान ज्ञान सम्भव नहीं है। अतः अन्य वस्तुमें ज्ञानरूप दूसरे विकल्पसे भो सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं होता। $ २८५. अपिच, जहाँ निषेध किया जाता है उसके सद्भावको ग्रहण करके और उसके प्रतियोगीका स्मरण करके 'नहीं है' इसप्रकारका इन्द्रिय 1. मु स 'क्वचित्सर्वज्ञस्य' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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