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________________ कारिका ११०] अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि ३११ सर्वज्ञे तत्सम्भवात्, तद्विषयस्य ज्ञानस्यासम्भवात्तस्यातीन्द्रियत्वात्परचेतोवृत्तिविशेषवत् । नापि निषेध्यात्सर्वज्ञादन्यवस्तुनि विज्ञानम्, तदेकज्ञानसंसगिणः कस्यचिद्वस्तुनोऽभावात्, घटैकज्ञानसंसर्गिभूतलवत् । न हि यथा घटभूतलयोश्चाक्षुषैकज्ञानसंसर्गात्केवलभूतले प्रतिषेध्याद घटादन्यत्र वस्तुनि विज्ञानं घटाभावव्यवहारं साधयति तथा प्रतिषेध्यात्सवज्ञादन्यत्र वस्तुनि विज्ञानं न तदभावसाधनसमर्थ सम्भवति । सर्वज्ञस्यातीन्द्रियत्वात्तद्विषयज्ञानस्थासम्भवात्तदेकज्ञानसंसगिणोऽस्मदादिप्रत्यक्ष सर्वज्ञका अभावसाधक नहीं है, क्योंकि वह सर्वज्ञके सद्भाव में भी रह सकता है। कारण, कोई यह नहीं जान सकता कि 'यह पुरुष सर्वज्ञ है' क्योंकि वह अतीन्द्रिय है-इन्द्रियगोचर नहीं है, जैसे दूसरेके मनकी विशेष बात । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार दूसरेके मनकी विशेष बात जाननेमें नहीं आती फिर भी उसका सद्भाव है और इसलिये उसका अभाव नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार किसीको सर्वज्ञका प्रत्यक्षादिप्रमाणोंसे ज्ञान न हो-अज्ञान हो तो उससे सर्वज्ञका अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि आत्मामें सर्वज्ञविषयक अज्ञान रहनेपर भी उसका सद्भाव बना रह सकता है । कारण, वह अतीन्द्रिय है । फलितार्थ यह हुआ कि अदृश्यानुपलब्धि अभावकी व्यभिचारिणी है और इसलिये वह अभावकी साधक नहीं है। किन्तु दृश्यानुपलब्धि अभावकी साधक है-जो उपलब्धियोग्य होनेपर भी उपलब्ध न हो उसका अभाव किया जाता है। जो उपलब्धियोग्य नहीं है उसका अभाव नहीं किया जा सकता। अतएव सर्वज्ञ उपलब्धि-अयोग्य होनेसे उसका अभावप्रमाणसे अभाव नहीं किया जा सकता है। अतः अदृश्यानुपलब्धिरूप सर्वज्ञविषयक प्रत्यक्षादिप्रमाणरूपसे आत्माका अपरिणाम सर्वज्ञके अभावका साधक नहीं है। और न निषेध्यसर्वज्ञसे अन्य वस्तुमें होनेवाला ज्ञान नी सर्वज्ञके अभावका साधक है, क्योंकि सर्वज्ञके एक ज्ञानसे संसर्गी कोई वस्तु नहीं है, जैसे घटके एकज्ञानसे संसर्गी भूतल । प्रकट है कि जिस प्रकार घट और भूतलके एक चाक्षुषज्ञानसंसर्गसे घटशून्य भूतलमें प्रतिषेध्य घटसे अन्य वस्तुमें होनेवाला 'इस भूतलमें घड़ा नहीं है' इस प्रकारका ज्ञान घटाभावके व्यवहारको कराता है उस प्रकार प्रतिषेध्य सर्वज्ञसे अन्य वस्तुमें होनेवाला ज्ञान सर्वज्ञाभावको सिद्ध करनेमें समर्थ सम्भव नहीं है। कारण, सर्वज्ञ अती 1. व 'नापि अन्यवस्तुन्यन्यस्य विज्ञान' । 2. व 'न हि तथा'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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