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आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका
[ कारिका ११०
निषेध्याधारवस्तुग्रहणं निषेध्य सर्वज्ञस्मरणं' वा तथ्यं स्यात् । तदभावे तत्र सर्वज्ञेऽभावप्रमाणं न प्रादुर्भवेदिति तदेव स्वेष्टबाधनं दुर्वारमायातम् ।
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$ २८७. नन्वेवं मिथ्यैकान्तस्य प्रतिषेधः स्याद्वादिभिः कथं विधीयते ? तस्य क्वचित्कथञ्चित्कदाचिदनुभवाभावे स्मरणासम्भवात्, तस्याननुस्मर्यमाणस्य प्रतिषेधायोगात् । क्वचित्कदाचित्तदनुभवे वा सर्वथा तत्प्रतिषेधविरोधात् । पराभ्युपगमात्प्रसिद्धस्य मिथ्यैकान्तस्य स्मर्यमाणस्य प्रतिषेधेऽपि स पराभ्युपगमः प्रमाणमप्रमाणं वा ? यदि
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का निषेध करनेवाले अभावप्रमाणकी उससे बाधा प्रसक्त होती है । और यदि वह अप्रमाण है तो उससे न निषेध्य ( सर्वज्ञ ) की आधारभूत वस्तुका ग्रहण यथार्थ ( प्रमाण ) हो सकता है और न निषेध्य सर्वज्ञका स्मरण यथार्थ (सत्य) हो सकता है। तात्पर्य यह कि जब सर्वज्ञवादियोंका सर्वज्ञाभ्युपगम मीमांसकोंके लिये प्रमाण नहीं है तो उससे उन्हें निषेध किये जानेवाले सर्वज्ञके आधारभूत त्रिलोक और त्रिकालका ज्ञान और निषेध्य सर्वज्ञरूप प्रतियोगीका स्मरण दोनों ही प्रमाण नहीं हो सकते हैं । और जब वे दोनों प्रमाण नहीं हो सकते हैं तो सर्वज्ञके विषय में अभावप्रमाण उद्भूत नहीं हो सकता है अर्थात् सर्वज्ञनिषेधक अभावप्रमाण नहीं बनता है और इस तरह आपके इष्ट मतमें वही अपरिहार्य बाधा आती है ।
$ २८७. शंका - यदि ( स्याद्वादी ) हमारे सर्वज्ञके निषेध करनेमें उक्त बाधादोष देते हैं तो आप मिथ्या एकान्तका निषेध कैसे करते हैं ? क्योंकि उसका आपको कहीं किसी तरह कभी अनुभव न होनेसे स्मरण नहीं बन सकता है और बिना स्मरण किये उसका प्रतिषेध हो नहीं सकता । यदि कहीं, कभी उसका अनुभव स्वीकार करें तो सर्वथा उसका प्रतिपेध नहीं हो सकता है । यदि कहें कि एकान्तवादी मिथ्या एकान्तको स्वीकार करते हैं और इसलिये उनके स्वीकारसे प्रसिद्ध एवं स्मरण किये
ये मिथ्या एकान्तका प्रतिषेध किया जाता है तो बतलाइये वह एकान्तवादियों का स्वीकार प्रमाण है अथवा अप्रमाण ? यदि प्रमाण है तो उससे
1. द 'सर्वज्ञश्रवणं' ।
2. द ' तथा ' ।
3. द 'कथमभिधीयते' ।
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